रूबाइयाँ
आवाज़ मुझे आखिरी देकर न गए,
आवाज़ मेरी आखिरी लेकर न गए,
बस चलते चलाते ही जहाँ छोड़ दिया,
अफ़सोस कि समझा के, समझ कर न गए.
मदरसों से धरम अड्डे से आते हैं वह ,
नफरतों को, कुदूरतों को फैलाते हैं वह ,
मान लेती है इन्हें भोली यह अवाम ,
सीख लेती है जो सिखलाते हैं वह .
होते हुए पुर अम्न ये हैबत में ढली,
लगती है ख़तरनाक मगर कितनी भली,
है ज़िन्दगी दो चार दिनों की ही बहार,
ये मौत की हुई , जो फूली न फली.
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