गज़ल
इक लम्हा लग्ज़िसों का अज़ाब ए हयात है,
ग़लबा है इक ख़ला का , भरी कायनात है.
पाबंदियों की सुर्ख़ लकीरें लिए हुए ,
रातों को दिन कहे, तो कहे दिन को रात है .
बस है बहुत लतीफ़, हक़ीक़त को छोडिए ,
इन झूटे तर्जुमों में, बला की सबात है .
आइना तेरे दिल का, निगाहों में नस्ब है ,
सुनने की बात, और न कहने की बात है.
मुन्सिफ की मुजरिमो की, हम आगोश हैं जड़ें,
इन्साफ़ मर चुका है, ये क़ौमी वफ़ात है.
ऐ डाकुओ! तुम्हारे भी अपने उसूल हैं,
हातिम को लूट लो, बड़ी नाज़ेबा बात है.
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