Saturday, January 30, 2016

Junbishen 744


ग़ज़ल 

तुम जाने किस युग के साथी, साथ मेरे क्यूं आए हो,
सर का भेद नहीं समझे, दाढ़ी-चोटी चिपकाए हो।

चमत्कार चतुराई है उसकी, तुम जैसा इंसान है वह,
करके महिमा मंडित उसको, तुम काहे बौराए हो।

माथा टेकू मस्तक वालो, यह भी कोई शैली है,
धोती ऊपर टोपी नीचे, इतना शीश नवाए हो।

मुझ तक अल्लह यार है मेरा, मेरे संग संग रहता है,
तुम तक अल्लह एक पहेली, बूझे और बुझाए हो।

चाहत की नगरी वालो, कुछ थोड़ा सा बदलाव करो,
तुम उसके दिल में बस जाओ, दिल में जिसे बसाए हो।

यह चिंतन, यह शोधन मेरे, मेरे ही उदगार नहीं,
अपने मन में इनके जैसा, तुम भी कहीं छुपाए हो।

चाँद, सितारे, सूरज, पर्बत, ज़ैतूनो-इन्जीरों१ की,
मौला! 'मुंकिर; समझ न पाया, इनकी क़समें खाए हो।

१-कुरान में अल्लाह इन चीज़ों की क़समें खा खा कर अपनी बातों का यकीन दिलाता है.

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