Tuesday, January 12, 2016

Junbishen 736



 ग़ज़ल

बहुत सी लग्ज़िशें ऐसी हुई हैं,
कि सासें आज भी लरज़ी हुई हैं.

मेरे इल्मो हुनर रोए हुए हैं,
मेरी नादानियाँ हंसती हुई हैं.

ये क़द्रें जिन से तुम लिपटे हुए हो,
हमारे अज़्म की उतरी हुई हैं.

वो चादर तान कर सोया हुवा है,
हजारों गुत्थियाँ उलझी हुई हैं.

बुतों को तोड़ कर तुम थक चुके हो,
तरक्की तुम से अब रूठी हुई है.

शहादत नाम दो या फिर हलाकत,
सियासत, मौतें तेरी दी हुई हैं.

हमीं को तैरना आया न "मुंकिर",
सदफ़ हर लहर पर बिखरी हुई हैं.

No comments:

Post a Comment