ग़ज़ल
बुल हवस को मौत तक, हिर्स ओ हवा ले जाएगी,
जश्न तक हमको क़िनाअत की अदा ले जाएगी।
बद ख़बर अख़बार का, पूरा सफ़ह ले जाएगी,
नेक ख़बरी को बलाए, हाशिया ले जाएगी।
बाँट दूँगा बुख्ल अपने खुद ग़रज़ रिश्तों को मैं,
बाद इसके जो बचेगा, दिल रुबा ले जाएगी।
रंज ओ गम, दर्द ओ अलम, सोज़ ओ ख़लिश हुज़्न ओ मलाल,
"ज़िन्दगी हम से जो रूठेगी, तो क्या ले जाएगी"।
मेरा हिस्सा ना मुरादी का, मेरे सर पे रखो,
अपना हिस्सा ऐश का, वह बे वफ़ा ले जाएगी।
गैरत "मुंकिर" को मत, काँधा लगा पुरसाने हाल,
क़ब्र तक ढो के उसे, उसकी अना ले जाएगी।
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*बुल हवस =लोलुपता *हिर्स ओ हवा =आकाँछा *किनाअत=संतोष *बुख्ल=कंजूसी *अना=गैरत
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