रुबाइयाँ
दोज़ख से डराए है मुसलसल मौला,
जन्नत से लुभाए है मुसलसल मौला,
है ऐसी ज़हानत कि ज़हीनो को चुभे ,
हिकमत को जताए है मुसलसल मौला,.
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बस गाफिल ओ नादर डरा करते हैं,
यारों से कहीं यार डरा करते हैं,
मत मुझको डरना किसी क़ह्हारी से,
मौला से गुनहगार डरा करते हैं.
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कब तक ते रवादारियाँ जायज़ होंगी,
औरत की ये कुरबानियाँ जायज़ होंगी,
हर रोज़ तलाक़ और हल्लाला ओ निकाह?
कब तक ये कलाकारयाँ जायज़ होंगी,
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शैतान को भड़काते, किसी ने देखा?
आवाज़ सुनी उसकी, किसी नें समझा?
आओ मैं दिखता हूँ अगर चाहो तो,
तबलीग के परदे में छिपा है बैठा.
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ईसाई गनीमत हैं, बदल जाते हैं,
हालात के साँचे में ही ढल जाते हैं,
फ़ितरत के हुए कायल, साइंस शुआर,
मजलिस की जिहालत से निकल जाते हैं.
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