रुबाईयाँ
लोगों के मुक़दमों में पड़े रहते हो,
नज़रों को नज़ारों को तड़े रहते हो,
खुद अपने ही हस्ती से नहीं मिलते कभी,
और ताज में ग़ैरों के जड़े रहते हो.
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बेचैन सा रहता भरी महफ़िल में,
है कौन छिपा बैठा, तड़पते दिल में,
रहती हैं ये आखें, मतलाशी किसकी ?
मंजिल है कहाँ, कौन निहाँ मंजिल में.
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धरती के हैं, धरती की रज़ा रखते हैं,
हक धरती का हर रोज़ अदा करते हैं,
वह चाहने वाले हैं फ़लक के 'मुंकिर',
ऊपर की दुआओं में लगे रहते हैं.
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तस्बीह, तसवीर, मसाजिद, तोगरा,
एक्सपोर्ट करे चीन, खरीदे मक्का,
सीने से लगाए हैं इन्हें हाजी जी,
बेदीनों के तिकड़म का यह दीनी तुक्का.
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दंगों में शिकारी को लगा देते हो,
शैतां की तरह पाठ पढ़ा देते हो,
फुफकारते हो धर्म ओ मज़ाहिब के ज़हर,
तुम जलते हुए दीप बुझा देते हो.
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बहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (01-09-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!