रुबाइयाँ
इक फ़ासले के साथ मिला करते थे,
शिकवा न कोई और न गिला करते थे,
क़ुरबत की शिद्दतों ने डाली है दराड़ ,
दो रंग में दो फूल खिला करते थे.
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खामोश हुए, मौत के ग़म मैंने पिए,
अब तुम भी न जलने दो ये आंसू के दिए,
मैं भूल चुका होता हूँ अपने सदमें,
तुम रोज़ चले आते हो पुरसे को लिए.
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माइल बहिसाब यूँ न होना था तुम्हें ,
मालूम न था अज़ाब होना था तुम्हें,
हंगामे-जवानी की मेरी तासवीरों,
इतनी जल्दी ख़राब होना था तुन्हें?
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पंडित जी भी आइटम का ही दम ले आए,
तुम भी मियाँ परमाणु के बम ले आए,
लड़ जाओ धर्म युद्ध या मज़हबी जंगें ,
हम सब्र करेगे, उम्र कम ले आए.
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तेरी मर्ज़ी पे है, मै बे दाग मरूँ,
हल्का हूँ पेट का, सुबकी को चरुं,
'मुनकिर' को नहीं हज्म बहुत से मौज़ूअ.
गीबात न करे तू तो, मैं चुगली न करून,
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बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (23-09-2012) के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!