Friday, September 21, 2012

रुबाइयाँ

रुबाइयाँ    


इक फ़ासले के साथ मिला करते थे,
शिकवा न कोई और न गिला करते थे,
क़ुरबत की शिद्दतों ने डाली है दराड़ ,
दो रंग में दो फूल खिला करते थे.
*

खामोश हुए, मौत के ग़म मैंने पिए,
अब तुम भी न जलने दो ये आंसू के दिए,
मैं भूल चुका होता हूँ अपने सदमें,
तुम रोज़ चले आते हो पुरसे को लिए.
*

माइल बहिसाब यूँ न होना था तुम्हें ,
मालूम न था अज़ाब होना था तुम्हें,
हंगामे-जवानी की मेरी तासवीरों,
इतनी जल्दी ख़राब होना था तुन्हें?
*

पंडित जी भी आइटम का ही दम ले आए,
तुम भी मियाँ परमाणु के बम ले आए,
लड़ जाओ धर्म युद्ध या मज़हबी जंगें ,
हम सब्र करेगे, उम्र कम ले आए.
*

तेरी मर्ज़ी पे है, मै बे दाग मरूँ,
हल्का हूँ पेट का, सुबकी को चरुं,
'मुनकिर' को नहीं हज्म बहुत से मौज़ूअ.
गीबात न करे तू तो, मैं चुगली न करून, 
*

1 comment:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (23-09-2012) के चर्चा मंच पर भी की गई है!
    सूचनार्थ!

    ReplyDelete