रुबाइयाँ
तहरीक ए सदाक़त हो दिलों में पैदा,
तबलीग़ ए जिसारत हो दिलों में पैदा,
समझा दो ज़माने को खुदा भी बुत है,
फ़ितरत की अक़ीदत को दिलों में पैदा.
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मुझको क्या कुछ, समझा बूझा है तुमने,
या अपने ही जैसा, जाना तुमने,
मेरे ईमान में फ़र्क लाने का ख़याल,
चन्दन पे है गोया, साँप पाला तुमने.
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फिर धर्म के पाखंड पे, भारत है रवाँ,
खो दे न तवानाई, तरक़क़ी ये जवाँ,
बढ़ चढ़ के दिमाग़ों में है मज़हब की अफ़ीम,
हुब्बुल बतानी का जज़्बा है कहाँ.
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दिल चाहता है, जिस्म थका, फिर हो जवाँ,
खूँ नाब में, परियों की अदा, फिर हो जवाँ,
कुछ ऐसा मुअज्ज़ा हो कि लौट आए जवानी,
मय, जाम, सुबू, साग़र ओ साक़ी का जहाँ हो,
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रोज़ों का असर देखो कि कुछ काम आया,
वह ईद के मौके पे लबे-बाम आया.
आदाब की झंकार, सिवइयों के साथ,
मुज्दः ! कि वह पलकों पे रखे जाम आया.
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