रुबाइयाँ
हलकी सी तजल्ली से हुआ परबत राख,
इंसानी बमों से हुई है बस्ती ख़ाक,
इन्सान ओ खुदा दोनों ही यकसाँ ठहरे,
शैतान गनीमत है रखे धरती पाक.
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हम लाख संवारें , वह संवारता ही नहीं,
वह रस्म ओ रिवाजों से उबरता ही नहीं,
नादाँ है, समझता है दाना खुद को,
पस्ता क़दरें लिए, वह डरता ही नहीं.
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हों यार ज़िन्दगी के सभी कम सहिह,
देते हैं ये इंसान को आराम सहिह
है एक ही पैमाना, आईना सा,
औलादें सहिह हैं तो है अंजाम सहिह.
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मज़दूर थका मांदा है देखो तन से,
वह बूढा मुफक्किर भी थका है मन से,
थकना ही नजातों की है कुंजी मुंकिर,
दौलत का पुजारी नहीं थकता धन से.
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हर सम्त सुनो बस कि सियासत के बोल,
फुटते ही नहीं मुंह से सदाक़त के बोल ,
मजलूम ने पकड़ी रहे दहशत गर्दी,
गर सुन जो सको सुन लो हकीकत के बोल.
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