रुबाइयाँ
शैतान मुबल्लिग़! अरे सबको बहका,
जन्नत तू सजा, फिर आके दोज़ख दहका,
फितरत की इनायत है भले 'मुंकिर' पर,
इस फूल से कहता है कि नफरत महका.
*
पसमांदा अक़वाम पे, क़ुरबान हूँ मै,
मुस्लिम के लिए खासा परीशान हूँ मैं,
पच्चीस हैं सौ में, इन्हें बेदार करो,
सब से बड़ा हमदरदे-मुसलमान हूँ मैं.
*
दौलत से कबाड़ी की है, बोझिल ये हयात,
हैं रोज़ सुकून के, न चैन की रात,
बुझती ही नहीं प्यास कभी दौलत की,
देते नहीं राहत इन्हें सदका ओ ज़कात.
*
मस्जिद के ढहाने को विजय कहते हो,
तुम दिल के दुखाने को विजय कहते हो,
होती है विजय सरहदों पे, दुश्मन पर,
सम्मान गंवाने को विजय कहते हो.
*
हों फ़ेल मेरे ऐसे, मेरी नज़रें न झुकें,
सब लोग हसें और क़दम मेरे रुकें,
अफकार ओ अमल हैं लिए सर की बाज़ी.
'मुंकिर' की नफ़स चलती रहे या कि रुके,
*
बहुत खूब !
ReplyDelete