Friday, September 9, 2016

Junbishen 745



ग़ज़ल

तलवार है समाज की फ़ितरत के हैं गले ,
गाए कहाँ पे इश्क़, कहाँ फूले और फले .

दातों तले ज़बान हो, या हाथ तू मले ,
मुंह से तेरे फिसल ही गई, बात हल्बले .

क्या खूब हो कि एक हवा, मौत की चले ,
शाखों को छोड़ जाएँ सभी, फल सड़े गले. 

ख़बरें फ़ना की और किसी नव जवां को हों,
जुज़्दान में ही रख अभी, क़ब्री मुआमले .

खुद साज़ियाँ मना हैं, तो खुद सोज़ियाँ हराम,
इस मसलिकी निज़ाम में, मुश्किल हैं मरहले .

किन मौसमों में क्या क्या, बोया कहाँ कहाँ ,
मुंकिर पकी हैं फ़स्ल सभी, जा के काट ले.

غزل 

تلوار ہے سماج کی ، فطرت کے ہیں گلے 
کھلکھلاۓ عشق، کہاں پھولے اور پھلے 

داتوں تلے زبان ہو ، یا ہاتھ تو ملے 
منہ سے تیرے نکل ہی گئی، بات ہلبلے 

کیا خوب ہو کہ ایک ہوا، موت کی چلے 
شاخوں کو چھوڑ جایں، سبھی پھل سڑے گلے 

خبریں فنا کی اور ، کسی نو جواں کو ہوں 
جزدان ہی میں ہی رکھ ابھی، قبری معاملے 

خود سازیاں منع ہیں، تو خود سوزیاں حرام 
اس مسلکی نظام میں، مشکل ہیں مرحلے 

کن موسموں میں کیا کیا، بویا کہاں کہاں 
منکر پکی ہیں فصل سبھی، جا کے کاٹ لے 


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