ग़ज़ल
हरगिज़ न परेशां हों, जो इलज़ाम लगा हो,
जब तक कि हक़ीक़त में, तुम्हारी न ख़ता हो .
जो बातें बड़ों की तुम्हें अच्छी न लगी हों,
बेजा है की छोटों को, वही तुमने कहा हो.
वह मौत की तफ़सीर बताने में है माहिर,
जिसने कि कभी ज़िन्दगी, समझा न जिया हो.
जज़्बात के कानों में ज़रा उंगली लगा ले,
जब खूं में तेरे, आग कोई घोल रहा हो.
वह बोझ गुनाहों का,उठाए है कमर पे,
अब ढूंढ रहा है कि कहीं कोई गढ़ा हो.
नस्लों का तेरे चाँद सितारों पे जनम हो ,
जन्नत की नहीं, हक में मेरे ऐसी दुआ हो .
غزل
ہرگز نہ پریشان ہوں ، کوئی بھی سزا ہو
جب تک کہ حقیقت میں تمہاری خطا نہ ہو ٠
جو بات بڑوں کی تمہیں اچھی نہ لگی ہو
بے جہ ہے کہ چھوٹوں کو وہی تم نے کہا ہو ٠
وہ موت کی تفسیر بتانے میں ہے ماہر
جس نے نہ کبھی زیست کو، سمجھا نہ جیا ہو ٠
ڈھو ڈھو کے گناہوں کو کمر جھک جو گئی ہے
اب ڈھونڈھ رہا ہے کہ کہیں کوئی گڑھا ہو ٠
نسلوں کا تیرے چاند ستاروں پہ جنم ہو
جنّت کی نہیں ، حق میں مرے ایسی دعا ہو ٠ ٠
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