Wednesday, August 10, 2016

Junbishen 745




ग़ज़ल

यह गलाज़त भरी रिशवत,
लग रहा खा रहे नेमत.

बैठी कश्ती पे माज़ी के,
फँस गई है बड़ी उम्मत.

कुफ्र ओ ईमाँ का शर लेके,
जग में फैला दिया नफरत.

सर कलम कर दिए कितने,
लेके इक नअरा ए वहदत.

सर बुलंदी हुई कैसी?
आप बोया करें वहशत.

धर्म ओ मज़हब हो मानवता,
रह गई एक ही सूरत.

माँ ट्रेसा बनीं नोबुल,
खिदमतों से मिली अज़मत.

हो गया हादसा आखिर,
हो गई थी ज़रा हफ्लत.

खा सका न वोह 'मुंकिर",
खा गई उसे है उसे दौलत.
*****
*माज़ी= अतीत *उम्मत=मुस्लमान *शर=बैर *वहदत=एकेश्वर


غزل

یہ غلاظت بھری رشوت 
لگ رہا کھا رہے ہو نعمت ٠ 

بیٹھی کشتی پہ ماضی کی 
پھنس گئی ہے بڑی امّت ٠

کفر ایمان کا شر لے کے 
جگ میں پھیلا دیا نفرت ٠ 

سر قلم کر دئے کتنے 
لے کے اک نعرہ ے وحدت ٠ 

سر بلندی ہوئی کیسے 
آپ بویا کریں دہشت ٠ 

ماں ٹریسا بنی نوبل 
خدمتوں ملی عظمت ٠ 

ہو گیا حادثہ آخر 
ہو گئی تھی ذرا غفلت ٠ 

دھرم و مذہب ہومانوتا 
رہ گئی ایک ہی صورت ٠ 

کھا سکا نہ وہ منکر
کھا گئی اسے دولت ٠ 

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