ग़ज़ल
यह गलाज़त भरी रिशवत,
लग रहा खा रहे नेमत.
बैठी कश्ती पे माज़ी के,
फँस गई है बड़ी उम्मत.
कुफ्र ओ ईमाँ का शर लेके,
जग में फैला दिया नफरत.
सर कलम कर दिए कितने,
लेके इक नअरा ए वहदत.
सर बुलंदी हुई कैसी?
आप बोया करें वहशत.
धर्म ओ मज़हब हो मानवता,
रह गई एक ही सूरत.
माँ ट्रेसा बनीं नोबुल,
खिदमतों से मिली अज़मत.
हो गया हादसा आखिर,
हो गई थी ज़रा हफ्लत.
खा सका न वोह 'मुंकिर",
खा गई उसे है उसे दौलत.
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*माज़ी= अतीत *उम्मत=मुस्लमान *शर=बैर *वहदत=एकेश्वर
غزل
یہ غلاظت بھری رشوت
لگ رہا کھا رہے ہو نعمت ٠
بیٹھی کشتی پہ ماضی کی
پھنس گئی ہے بڑی امّت ٠
کفر ایمان کا شر لے کے
جگ میں پھیلا دیا نفرت ٠
سر قلم کر دئے کتنے
لے کے اک نعرہ ے وحدت ٠
سر بلندی ہوئی کیسے
آپ بویا کریں دہشت ٠
ماں ٹریسا بنی نوبل
خدمتوں ملی عظمت ٠
ہو گیا حادثہ آخر
ہو گئی تھی ذرا غفلت ٠
دھرم و مذہب ہومانوتا
رہ گئی ایک ہی صورت ٠
کھا سکا نہ وہ منکر
کھا گئی اسے دولت ٠
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