नज़्म
पैग़ाम ए नाहक़
कैसी सदा है दुन्या ये नापएदार है ,
फ़ानी तो हम सभी हैं, मगर ज़िंदगी केबाद ,
फ़रमान ए बुज़दिली है कि मरने से पहले मर .
इंसान में अजीब ये, मरने का खौफ़ है ,
वरना क़ज़ा ही उम्र ज़दा की नजात है ,
पचती नहीं किसी को, ये घुट्टी ज़वाल की .
किस कद्र फ़िक्र ख़ाम है, मरने का खौफ़ ये,
जब कि बहुत ही साफ़ है, तरतीब ए ज़िन्दगी ,
फलना शजर के बस में है, झरना है बेबसी .
यह उम्र चाहती है, उरूज ओ ज़वाल को ,
इंसान चाहता है, मुसलसल हयात हो ,
हिस्से में इसके एक बड़ी कायनात हो .
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