Saturday, May 18, 2013

Junbishen 18


ग़ज़ल 

तेरे मुबाहिसों का,ये लब्बो लुबाब है,
रुस्वाए हश्र* हैं सभी, तू कामयाब है।

आंखों पे है यकीन, न कानों पे एतबार,
सदियों से क़ौम आला$, ज़रा महवे ख़्वाब है।

दुन्या समर भी पाए, जो चूसो ज़मीं का ख़ून ,
जज्बा ज़मीं का है, तो यह हरकत सवाब है।

अफ़सोस मैं किसी की, समाअत3 न बन सका,
चारो तरफ़ ही मेरे, सवालों जवाब है।

पुरसाने हाल बन के, मेरे दिल को मत दुखा,
मुझ में संभलने, उठने और चलने की ताब है।

दर परदए खुलूस, कहीं सांप है छिपा,
'मुंकिर' है बूए ज़हर, यह कैसी शराब है।

रुस्वाए हश्र *=प्रलय के पापी $=इशारा मुसलमान ३-श्रवण शक्ति

No comments:

Post a Comment