Thursday, May 30, 2013

Junbishen 24


ग़ज़ल 

साफ़ सुथरी सी काएनात मिले,
तंग जेहनो से कुछ, नजात मिले।

संस्कारों में, धर्म और मज़हब,
न विरासत में जात, पात मिले।

आप की मजलिसे मुक़द्दस1 में,
सिर्फ़ फ़ितनों के, कुछ नुक़ात2 मिले।

तुझ से मिल कर गुमान होता है,
बस की जैसे, खुदा की ज़ात मिले।

उलझी गुत्थी है, सांस की गर्दिश,
एक सुलझी हुई, हयात मिले।

हर्फ़ ए आखीर हैं, तेरी बातें,
इस में ढूंडा कि कोई बात मिले।

१-सदभाव-सभा २-षड़यंत्र-सूत्र

Tuesday, May 28, 2013

Junbishen 23


नज़्म 

शक के मोती

शक जुर्म नहीं, शक पाप नहीं, शक ही तो इक पैमाना है ,

विश्वाश में तुम लुटते हो सदा, विश्वाश में कब तक जाना है .

शक लाज़िम है भगवान ओ, ख़ुदा पर जिनकी सौ दूकानें हैं ,

औतार ओ पयम्बर पर शक हो, जो ज़्यादः तर अफ़साने1हैं .


शक हो सूफ़ी सन्यासी पर, जो छोटे ख़ुदा बन बैठे हैं ,

शक फूटे धर्म ग्रंथों पर, फ़ासिक़ हैं दुआ बन बैठे हैं .

शक पनपे धर्म के अड्डों पर, जो अपनी हुकूमत पाये हैं ,

जो पिए हैं ख़ून  की गंगा जल, जो माले ग़नीमत3 खाए हैं .


शक थोड़ा सा ख़ुद पर भी हो, मुझ पर कोई ग़ालिब तो नहीं ?

जो मेरा गुरू बन बैठा है, वह बदों का ग़ासिब तो नहीं ?

शक के परदे हट जाएँ तो, 'मुंकिर' हक़ की तस्वीर मिले ,

क़ौमों को नई तालीम मिले, जेहनों को नई तासीर मिले .


१-कहानी २- मिथ्य  ३-युद्ध में लूटी सम्पत्ति ४-विजई ५ -अप्भोगी ६-सत्य

Sunday, May 26, 2013

unbishen22




कुफ़्र और ईमान

कुफ़्र ओ ईमान१-२दो सगे भाई,
सैकडों साल हुए बिछडे हुए,
हाद्साती हवा थी आई हुई,
एक तूफाँ ने इनको तोडा था।

कोहना क़द्रों4पे कुफ़्र था क़ायम,
इक खुदा की सदा लिए ईमां,
बस नज़रयाती इख्तिलाफ़5 के साथ,
ठन गई कुफ्र और ईमाँ में।

नाराए जंग और जेहादलिए,
भाई भाई को क़त्ल करते थे,
बरकतें लूट की ग़नीमत7थीं,
और ज़रीआ मुआश8 थे हमले।

कुफ़्र की देवियाँ लचीली थीं,
देवता बेनयाज़9 थे बैठे,
जैश१० ईमान का जो आता था,
देवता मालो-ज़र लुटाते थे।

ज़द10 में थे एशिया व् अफ्रीक़ा,
हर मुक़ामी पे क़ह्र बरपा थी,
ऐसा ईमान ने गज़ब ढाया,
आधी धरती पे मौत बरसाया।

खित्ता, इक जमीं पे भारत था,
सख्त जानी थी कुफ़्र की इस पर,
इसपे आकर रुका थका ईमां,
कुफ़्र के साथ कुछ हुवा राज़ी।

सदियों ग़ालिब रहा मगर इस पर,
कुफ्र के आधे इल्तेज़ाम11के साथ,
कुफ़्र पहुँचा सिने बलूग़त को,
फ़िर ये जमहूर्यत की ऋतू आई।

कुफ़्रको कुछ ज़रा मिली राहत ,
और उसने नतीजा अख्ज़12किया,
क्यूं न ईमान की तरह हम भी,
जौर ओ शिद्दत13की राह अपनाएं।

मेरा भी एक ही पयम्बर हो,
राम से और कौन बेहतर है,
मेरा भी सिर्फ़ एक मक्का हो,
मन को भाई अयोध्या नगरी।

काबा जैसा ही राम का मन्दिर,
बाबरी टूटे, कुफ़्र क़ायम हो,
उनका इस्लाम, अपना हो हिंद्त्व ,
सारे रद्दे-अमल14 हैं फ़ितरी15 से।

कुफ़्र में इख्तेलाफ़16 दूर हुए,
फ़ार्मूला ये ठीक था शायद,
उसकी कुछ जुज़वी कामयाबी है,
उसकी गुजरात में जवाबी है।

आज ईमां को होश आया है,
बिसरी आयत17 जान पाया है,
है लकुम-दीनकुम18 से अब मतलब,
भूले काफ़िर को क़त्ल करना अब।

अहल-ऐ-ईमां की बड़ी मुश्किल है,
आज मोहलिक१९ निज़ाम-कामिल२०,
कोई भाई भी पुरसा हाल नहीं,
करके हिजरत२१ वह कहाँ जाएँ अब।

है बहुत दूर मर्कज़े-ईमां22,
उसकी अपनी ही चूलें ढीली हैं,
हैं पडोसो में भाई बंद कई,
जिन के अपने ही बख्त23 फूटे हैं।

ईमाँ त्यागे अगर जो हट धर्मी,
कुफ्र वालों के नर्म गोशे24 हैं,
उनकी नरमी से बचा है ईमां,
वरना दस फ़ी सदी के चे-माने ?

बात 'मुंकिर' की गर सुने ईमां,
जिसकी तजवीज़25 ही मुनासिब है,
जिसका इंसानियत ही मज़हब है,
कुफ़्र की भी यही ज़रूरत है॥

1-काफिर आस्था २-मुस्लिम आस्था ३-दुर्घटना -युक्त ४-पुरानी मान्यताएं ५-दिरिष्ट -कौणिक ६-धर्म युद्ध ७-धर्म युद्ध में लूटा हुआ माल ८-जीविका-श्रोत ९-अबोध १०-लश्कर 10- nishana ११-चपेट १२-समझौता १३-निकाला १४-ज़ुल्म,ज्यादती १५-प्रति-क्रिया १६-स्वाभाविक १७-विरोध १८-कुरानी लेख अंश १९-तुहारा दीन तुहारे लिए,हमारा दिन हमारे लिए २०-हानि कारक २१-सम्पूर्ण जीवन शैली २२स्वदेश त्याग २३-मक्का की ओर संकेत २४-भाग्य २५-कुञ्ज २६-उपाय .

Friday, May 24, 2013

unbishen21

ढलान


हस्ती है अब नशीब१ में, सब कुछ ढलान पर,
कोई नहीं जो मेरे लिए, खेले जान पर,
ख़ुद साए ने भी मेरे, यूँ तकरार कर दिया,
सर पे है धूप, लेटो, मेरा क़द है आन पर।
१-ढाल


शायरी 



फ़िक्र से ख़ारिज अगर है शायरी , बे रूह है ,
फ़न से है आरास्ता , माना मगर मकरूह है,
हम्द नातें मरसिया , लाफ़िकरी हैं, फिक्रें नहीं ,
फ़िक्र ए नव की बारयाबी , शायरी की रूह है . 

वादा तलब 

नाज़ ओ अदा पे मेरे न कुछ दाद दीजिए ,
मत हीरे मोतियों से मुझे लाद दीजिए ,
हाँ इक महा पुरुष की है, धरती को आरज़ू ,
मेरे हमल को ऐसी इक औलाद दीजिए .

Wednesday, May 22, 2013

Junbishen20

रुबाइयाँ 


सद बुद्धि दे उसको तू , निराले भगवान्,
अपना ही किया करता है, कौदम नुक़सान,
नफ़रत है उसे, सारे मुसलमानों से,
पक्का हिन्दू है, वह कच्चा इंसान।


कफ़िर है न मोमिन, न कोई शैतां है,
हर रूप में, हर रंग में, बस इन्सां है,
मज़हब ने, धर्म ने, किया छीछा लेदर,
बेहतर है मुअतक़िद * नहीं जो हैवाँ  है।


मज़हब है रहे गुम पे, दिशा हीन धरम हैं,
आपस में दया भाव नहीं है, न करम हैं,
तलवार, धनुष बाण उठाए दोनों,
मानव के लिए पीड़ा हैं, इंसान के ग़म हैं।

Monday, May 20, 2013

Junbishen 19


ग़ज़ल  

उफ़! दामे मग्फ़िरत 1 में, बहुत मुब्तिला था ये,
नादाँ था दिल, तलाशे खुदा में पड़ा था ये।

महरूम रह गया हूँ, मैं छोटे गुनाह से ,
किस दर्जा पुर फ़रेब, यक़ीन जज़ा2 था ये।

पुर अमन थी ज़मीन ये, कुछ रोज़ के लिए ,
तारीख़ी वाक़ेओं में, बड़ा वक़िआ का था ये।

मानी सभी थे द्फ़्न समाअत की क़ब्र में,
अल्फ़ाज़ ही न पैदा हुए, सानेहा था ये।

हर ऐरे गैरे बुत को, हरम से हटा दिए,
तेरा4 लगा दिया था, कि सब से बड़ा था ये।

'मुंकिर' पडा है क़ब्र में , तुम ग़म में हो पड़े,
तिफ़ली5 अदावतों का नतीजा मिला था ये।

१-मुक्ति का भ्रम जाल २-मुक्ति का विशवास ३-श्रवण शक्ति ४-अर्थात अल्लाह का ५-बचकाना.

Saturday, May 18, 2013

Junbishen 18


ग़ज़ल 

तेरे मुबाहिसों का,ये लब्बो लुबाब है,
रुस्वाए हश्र* हैं सभी, तू कामयाब है।

आंखों पे है यकीन, न कानों पे एतबार,
सदियों से क़ौम आला$, ज़रा महवे ख़्वाब है।

दुन्या समर भी पाए, जो चूसो ज़मीं का ख़ून ,
जज्बा ज़मीं का है, तो यह हरकत सवाब है।

अफ़सोस मैं किसी की, समाअत3 न बन सका,
चारो तरफ़ ही मेरे, सवालों जवाब है।

पुरसाने हाल बन के, मेरे दिल को मत दुखा,
मुझ में संभलने, उठने और चलने की ताब है।

दर परदए खुलूस, कहीं सांप है छिपा,
'मुंकिर' है बूए ज़हर, यह कैसी शराब है।

रुस्वाए हश्र *=प्रलय के पापी $=इशारा मुसलमान ३-श्रवण शक्ति

Friday, May 17, 2013

Junbishen 17


ग़ज़ल 

अगर ख़ुद को समझ पाओ, तो ख़ुद अपने ख़ुदा हो तुम,
कहाँ किन किन के बतलाए हुओं में, मुब्तिला हो तुम।

है अपने आप में ही खींचा-तानी, तुम लडोगे क्या ?
इकट्ठा कर लो ख़ुद को, मुन्तशिर हो, जा बजा1 हो तुम।

मरे माज़ी2 का अपने, ऐ ढिंढोरा पीटने वालो!
बहुत शर्मिन्दा है ये हाल, जिस के सानेहा3 हो तुम।

तुम अपने ज़हर के सौगात को, वापस ही ले जाओ,
कहाँ इतने बड़े हो? तोह्फ़ा दो मुझ को, गदा4 हो तुम।

फ़लक़ पर आक़बत 5 की, खेतियों को जोतने वालो,
ज़मीं कहती है इस पर एक, दाग़े बद नुमा हो तुम।

चलो वीराने में 'मुंकिर' कि फुर्सत हो ख़ुदाओं से,
बहुत मुमकिन है मिल जाए खुदाई भी, बजा हो तुम.

१-बिखरे हुए २-अतीत ३-विडम्बना ४-भिखरी ५-परलोक

Tuesday, May 14, 2013

Junbishen 16


ग़ज़ल 


हैं मसअले ज़मीनी, हलहाए आसमानी,
नीचे से बेखबर है, ऊपर की लन तरानी।

फ़रमान सीधे सादे, पुर पेच तर्जुमानी,
उफ़! कूवाते समाअत* उफ़! हद्दे बे जुबानी।

ना जेबा तसल्लुत1 है, बेजा यकीं दहानी2,
ख़ुद बन गई है दुन्या, या कोई इसका बानी।

मैं सच को ढो रहा था, तुम कब्र खोदते थे,
आख़िर ज़मीं ने उगले, सच्चाइयों के मानी।

कर लूँ शिकार तेरा, या तू मुझे करेगा,
बन जा तू ईं जहानी3, या बन जा आँ जहानी4

ईमान ऐ अस्ल शायद, तस्लीम का चुका है,
वह आग आग हस्ती, "मुंकिर" है पानी पानी।

* श्रवण-शक्ति १-लदान २-विशवास दिलाना ३-इस जहान के ४-उस जहान के

Sunday, May 12, 2013

Junbishen 15


नज़्म 

ग्यारहवीं  सदी की आहें


हमारे घर में घुसे, बस कि धड़धदाए हुए ,
वो डाकू कौन थे? इन वादियों में आए हुए ।

यक़ीन ओ खौफ़,सज़ा और तमअ1की तलवारें ,
अजीब रब था कोई, उनको था थमाए हुए ।

खुदाए सानी2 बने हुक्मरां,वज़ीर ओ सिपाह ,
सितम के तेग़ थे, हर शख्स में चुभाए हुए ।

जेहाद उनकी बज़िद थी, लडो या जज़या  दो ,
नहीं तो ज़ेहनी गुलामी, को थे जताए हुए ।

दलाल उसके, रिया कारियों3 का दीन लिए ,
दूकाने अपनी थे, हर कूंचे में सजाए हुए ।

दोबारा रोपे गए हैं, वह शजर4 हैं 'मुंकिर',
महद5 से माँ के हैं, ज़ालिम उसे उठाए हुए ।

१-लालच २-द्वतीय ईश्वर ३-ढोंगी ४-पेड़ ५-पालना

Saturday, May 11, 2013

Junbishen 14


क़फ़्से इन्कलाब1

हद बंदियों में करके, आज़ाद कर गए,
दी है नजात या फिर, बेदाद कर गए।

अरबो-अजम,हरब के, दर्जाते-इम्तियाज़4,
अपनों को दूसरों पर, आबाद कर गए।

जिस्मो, दिलों,दिमागों पर, हुक्मरान हैं वह,
बे बालो पर हमें यूँ ,सय्याद कर गए।

ज़ेहनो में भर दिया है, इक आख़िरी निज़ाम ,
हर नक्श इर्तेक़ा को, बरबाद कर गए।

इंसान चाहता है,  बेख़ौफ़ ज़िन्दगी,
वह सहमी सी, ससी सी, इरशाद कर गए।

इक्कीसवीं सदी में, आया है होश 'मुंकिर',
उनके सभी सितम को, फिर याद कर गए।

१-इन्कलाब का पिंजडा २-जुल्म ३-मुल्कों की इस्लामी श्रेणी ४पदोन का अन्तर
५-आखेटक ६- व्यवस्था ७-रचनात्मक चिन्ह ८-फरमान

Wednesday, May 8, 2013

Junbishen 1 3


दोहे 

जिनके पंडित मोलवी  घृणा पाठ पढ़ाएँ ,
दीन धरम को छोड़ के , वह मानवता अपनाएं .
*
क़ुदरत ही है आइना, प्रकृति ही है माप,
तू भी उसका अंश है, तू भी उसकी नाप।
*
बा-मज़हब मुस्लिम रहे, हिदू रहे सधर्म,
अवसर दंगा का मिला, हत्या इन का धर्म।
*
गति से दुरगत होत है, गति से गत भर मान,
गति की लागत कुछ नहीं, गति के मूल महान।
*
काहे हंगामा करे, रोए ज़ारो-क़तार,
आंसू के दो बूँद बहुत हैं, पलक भिगोले यार।

Tuesday, May 7, 2013

Junbishen 12


मुस्कुराहटें 

बैटिंग---

क्या बात है, अकेले ही 'मुंकिर' खड़े हो तुम?
लगता है इस समाज से कस के लड़े हो तुम।

तफसीर1,तर्जुमा2 कि हो तारीख, चट चुके,
जितने ज़मीं से निकले हो उतने गडे हो तुम।

इब्लीस3 की तरह ही, खुदी के नशे में हो,
आदम की वल्दियत है, ये किस पे पड़े हो तुम?

मज़हब हैं ग्यारह, बारह किसी पर तो पसीजो,
दिल नर्म है, दिमाग़ से कितने कड़े हो तुम।

कैच- - -
लोगो ये कायनात4 तगय्युर पजीर5 है,
सदियों पुरानी रस्मे-कुहन6 पर अडे हो तुम।

ख़ुद अपनी रहनुमाई के काबिल नहीं हुए?
कब तक रहोगे गोद में। जल्दी बड़े हो तुम।

१-ब्याख्या २-अनुवाद ३-बड़ा शैतान ४-ब्रम्हांड ५-परिवर्तन शील ६-पुराणी रस्में

Sunday, May 5, 2013

Junbishen 11



ग़ज़ल 

तालीम नई जेहल1 मिटाने पे तुली है,
रूहानी वबा है, कि लुभाने पे तुली है।

बेदार शरीअत3 की ज़रूरत है ज़मीं को,
अफ्लाफ़4 की लोरी ये सुलाने पे तुली है।

जो तोड़ सकेगा, वो बनाएगा नया घर,
तरकीबे रफ़ू, उम्र बिताने पे तुली है।

किस शिद्दते जदीद की, दुन्या है उनके सर
बस ज़िन्दगी का जश्न, मनाने पे तुली है।

मैं इल्म की दौलत को, जुटाने पे तुला हूँ,
कीमत को मेरी भीड़, घटाने पे तुली है।

'मुंकिर' की तराजू पे, अनल हक5 की  धरा6 है,
"जुंबिश" है कि तस्बीह के दानों पे तुली है।

१-अंध विशवास २-आध्यात्मिक रोग ३-बेदार शरीअत=जगी हुई नियमावली ४-आकाश ५- मैं ख़ुदा हूँ 6- वह वजन जो तराजू का पासंग ठीक करता है

Thursday, May 2, 2013

Junbishen 10


ग़ज़ल 

पोथी समाए भेजे में, तब कुछ यकीं भी हो,

ऐ गूंगी कायनात! ज़रा नुक़ता चीं भी हो।


खोदा है इल्मे नव ने, अक़ीदत के फर्श को,

अब अगले मोर्चे पे, वह अर्शे बरीं2 भी हो।


साइंस दाँ हैं बानी, नए आसमान के,

पैग़म्बरों के पास ही, इन की ज़मी भी हो।


ऐ इश्तेराक़3 ठहर भी, जागा है इन्फ़्राद4,

कहता है थोडी पूँजी, सभी की कहीं भी हो।


बारूद पर ज़मीन , हथेली पे आग है,

है अम्न का तक़ाज़ा, कि हाँ हो, नहीं भी हो।'


'मुंकिर' भी चाहता है, सदाक़त5 पे हो फ़िदा,

इन्साफ़ो आगाही6 को लिए, तेरा दीं7 भी हो।

२-सातवाँ आसमान ३-साम्यवाद ४-व्यक्तिवाद ५-सच्चाई ६न्याय एवं विज्ञप्ति ७-धर्म