Tuesday, June 4, 2019

ईद की महरूमियाँ



ईद की महरूमियाँ 1

कैसी हैं ईद की ख़ुशियाँ, यह नक़ाहत की तरह,
जश्न क़र्ज़े की तरह, नेमतें क़ीमत की तरह.
ईद का चाँद ये, कैसी ख़ुशी को लाता है,
घर के मुखिया पे नए पन के सितम ढाता है.

ज़ेब तन कपड़े नए हों तो ख़ुशी ईद है क्या?
फ़िक्र-ए-गुर्बा के लिए हक़ की ये ताईद है क्या?
क़ौम पर लअनतें हैं फ़ित्रा व् ख़ैरात व् ज़कात ,
ठीकरे भीख की ठंकाए है, उमरा की जमाअत.

पॉँच वक़तों  की नमाज़ें हैं अदा रोज़ाना,
आज के रोज़ अज़ाफ़ी है सफ़र दोगाना.
इसकी कसरत से कहीं दिल में ख़ुशी होती है,
भीड़ में ज़िन्दगी तनहा सी पड़ी होती है.

ईद के दिन तो नमाज़ों से बरी करना था,
छूट इस दिन के लिए मय-ब-लबी करना था.
नव जवाँ देव परी के लिए मेले होते,
अपनी दुन्या में दो महबूब अकेले होते.

रक़्स होता, ज़रा धूम धड़ाका होता,
फुलझड़ी छूटतीं, कलियों में धमाका होता.
हुस्न के रुख़ पे शरीयत का न परदा होता,
मुत्तक़ी१०,पीर, फ़क़ीहों११, को ये मुजदा१२, होता.

हम सफ़र चुनने की यह ईद इजाज़त देती,
फ़ितरते ख़ल्क़१३ को संजीदगी फ़ुर्सत देती.
ईद आई है मगर दिल में चुभी फांस लिए,
क़र्बे१४ महरूमी लिए, घुट्ती हुई साँस लिए.

१-वनचित्ता २-कमजोरी ३-गरीबों की चिंता ४-ईश्वर 5-समर्थन 
६-दान की विधाएँ ७-धनाड्य ८-ईद की नमाज़ को दोगाना कहते ९-धर्मं विधान 
१०-सदा चारी  11-धर्म-शास्त्री १३-खुश खबरी १3-जीव प्रवर्ति14-वंचित की पीड़ा

*
عید کی محرومیاں

کیسی ہیں عید کی خوشیاں ، یہ نقاہت جیسی 
جشن قرضے کی طرح ، نعمتیں قیمت جیسی 
عید کا چاند ، خوشی لےکے کہاں آتا ہے ؟
گھر کے مکھیہ پہ ، نئے پن کے ستم ڈھاتا ہے ٠

زیبِ تن کپڑے نئے ہوں ، تو خوشی عید ہے کیا ؟
فکرِ غربہ کے لئے ، حق کی یہ تائید ہے کیا ؟
قوم کی لعنتیں ہیں ، فطرہ و خیرات و زکات 
ٹھیکرے بھیکھ کے ، ٹھنکاتی ہے عمرہ کی جماعت ٠

پانچ وقتوں کی نمازیں ہیں ادا روزانہ 
آج کے روز اضافی ہے ، سفرِ دوغانا 
ان کی کثرت سے ، کہیں کوئی خوشی ملتی ہے ؟
اس کی ییاری میں ہی ، نصف صدی لگتی ہے ٠

آج کے دن تو نمازوں سے بری کرنا تھا 
چھوٹ اس دن کے لئے مے بہ لبی کرنا تھا 
نو جواں دیو و پری کے لئے میلے ہوتے 
محوِ انفاس میں ہر جوڑے اکیلے ہوتے ٠

ان چھئے جسم ، نئے لمس کی لذّت پاتے 
انتخباتِ نظر ، رتبۂ فطرت پا تے 
حسن کے رخ پہ ، شریعت کا نہ پردہ ہوتا 
متقی ، پیر ، فقیہوں کو یہ مژدہ ہوتا ٠

ہم سفر چننے کی ، یہ عید اجازت دیتی 
فطرت خلق کو ، سنجیدگی فرست دیتی 
عید آئ ہے ، مگر دل میں چبھی پھانس لئے 
قربِ محرومی لئے ، گھٹتی ہوئی سانس لئے ٠ 
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