अर्ज़ और निवेदन
माज़ी में हमें समाज सुधार की राहों में बहुत सी हस्तियाँ झिलमिलाती हुई नज़र आएंगी, जिन्हें हम अवतार, पैग़म्बर, गुरु और महात्मा कहते हैं.
उस ज़माने के समाजी मसाइल को मद्दे-नज़र रखते हुए, हमें उनके पैग़ाम पर एक नज़र डालना चाहिए.
जिस तरह आदमी बचपन को पार करते हुए जवानी तक पहुँच जाता है, उसी तरह इंसानी समाज भी इरतेक़ाई सूरत में (रचना कालिक) है.
इंसान की रिहाइश गुफाओं, जंगलों और दरख़्तों पर कभी हुवा करती थी, कुछ समझ आई तो घर बनाना शुरू किया, खेती बाड़ी करने लगा,
कुछ और समझ आई तो बस्तियां बना कर रहने लगा, - - -
गरज़ कि आज यहाँ तक नौबत आ गई है कि इंसान आसमान फ़तह करने लगा.
समाज सुधारकों के हथियार भी इर्तेक़ाई हुवा करते हैं, इनमें भी तब्दीली हुवा करती है. जब अक्ल़ ए इंसान तिफ़ली (बचकानी) थी तब समाज सुधार के लिए जो हथियार गढ़े गए थे, क्या वही हथियार आज जवान शऊर के लिए कारामद साबित हो सकते हैं ?
नहीं.
इस वक़्त इन तमाम हथियारों को कुंद और नाकारा कहा जाएगा.
इन्हीं कुंद हथियारों की उस वक़्त ज़रुरत थी, इसके आलावा कोई सूरत न थी.
आज की सच्चाई यह है कि उनके समाज सुधार के हथियार हुवा करते थे मन गढ़ंत. वह ज्ञान आधारित थे न विज्ञान आधारित.
आत्मा, रूह, शैतान, भूत और फिर देवी देवता, उसके बाद ख़ुदाओं का तसव्वुर क़ायम हुवा. इन्हीं हथियारों से हमारे बुजुर्गों ने समाज सुधार और समाज कल्याण का फ़र्ज़ निभाया.
खुदा और शैतान का तसव्वुर नेकी और बदी की अलामतें बना कर पेश की गईं.
जन्नत और दोज़ख का ख़याल देकर अवाम को ललचाया और डराया गया. इसके बावजूद अगर लोग बुराइयों से कनारा कश न होते तो उन पर मज़हबी सख़्तियाँ होतीं.
रहबरों ने इंसानी समाज के लिए जो भी किया उसे बुरा नहीं कहा जा सकता. वह बहरहाल समाज के हमदर्द थे.
अहम् सवाल यह उठता है कि माज़ी के कुंद हथियार क्या आज कारामद हैं?
जिन्हें कि सारे मुल्ला पंडित आज भी भांज रहे हैं.
क्या किसी जवान को "बिलव्वा आया" कहकर डराया जा सकता है ?
याद रख्खें आलमी सच्चाइयां, आलमी होती हैं.
यह इंसान को आलम और इल्म से मिलती हैं न कि धर्म व मज़हब से.
नईं तअलीमी और ख़ासकर साइंसी इन्क्शाफ़ात (खोजें) ने कल के समाज को बच्चा साबित कर दिया है. आजका इंसान अब इर्तेक़ाई मरहलों (रचना कालिक पड़ाव) का बच्चा नहीं रहा. मौजूदा इंसानी समाज को उरयाँ (नंगी) सदक़तों (सच्चाइयां) की ज़रुरत है.
इस बात पर यक़ीन किया जा सकता है कि उरियां सदक़तों से हम आगोश मुआशरा ही मुकम्मल इंसान पैदा कर सकता है, जिसे कि महान जर्मन विचारक फेड्रिख बिलहिल्म्स नीत्शे ने महामानव कहा है.
आज ज़रुरत इस बात की है कि धर्म और मज़हब की गुत्थियों पर बारीक नज़र डाली जाए. क्या यह गुथ्थियाँ सुलझ कर इंसानियत के लिए सीधी राह दे सकती हैं ?
समाजी सांचे में फिट रहने के लिए हर फ़र्द किसी न किसी तंजीम, जमात, संघ या पार्टी वग़ैरा से जुड़ा रहना चाहता है, जिसके कि हक्वारे हुवा करते हैं, जोकि सीमित सोच रखने वाली अवाम को भेड़ बकरियां समझते है. अविकसित और अल्प बुद्धि मानव समाज का प्राणी अपनी कमज़ोर सोच के लिए यहाँ ऊर्जा पाता है. यह एक तरह की जन साधारण की ज़ेहनी हवालगी होती है. इसमें दाख़िले के बाद व्यक्ति हक्वारे के रेवड़ का एक मवेशी बन कर रह जाता है. यहाँ पर शब्द "डिसिप्लिन" हक्वारे के बड़ा काम आता है. एक वक़्त आता है जब फ़र्द ख़ुद अपने वजूद का मालिक नहीं रह जाता. वह अपने हक्वारे को ही अपना बख़्शनहारा मानने लगता है. यह आत्म घाती हवालगी उसे ज़मीन और आसमान की फ़िकरों से नजात दिला देती है.
दर अस्ल यह कमज़ोर सोच रखने वालों के लिए एक तरह की राह-ए-फ़रार है. पलायन है. यह फ़रार लोग निहायत ग़ैर ज़िम्मेदार होते हैं. अपने बाल बच्चों को ख़ुदा की मर्ज़ी की वल्दियत दे देते हैं. यह लोग तंज़ीम में ख़ुद को बहुत महफ़ूज़ पाते हैं. इनका ख़मीर बुनयादी तौर पर काहिल और निकम्मा होता है. इनकी आसान पसंदी हकवारों की बद नियती को नज़र अंदाज़ करती रहती है.
झुण्ड की झुण्ड यह रूहानी भेड़ें अपने दिल व दिमाग़ और ज़मीर को हक्वारे की क़त्ल गाह के हवाले किए रहती है. इस तरह से क़ुदरत से मिला हुवा ज़िंदगी का नायाब तोहफ़ा ज़ाया हो जाता है.
मैंने इन पेशावर पीरों के दर पर देखा कि मर्द बच्चे सिंफ़-ए -नाज़ुक की तरह अपनी ज़ात को इनके हवाले किए रहते हैं.
उफ़ ! वजूद की इस क़दर पामाली.
अपने आप की रहनुमाई की आवाज़ कहीं से मेरा कानों में आई,
रहनुमाई के लिए सदाक़तें उँगली थमाने के लिए सामने खड़ी हुई थीं.
बचपन में कबीरी दोहों को इम्तेहान पास करने के लिए जो रटे थे,
उनमे माने नज़र आने लगे.
साँच बराबर तप नहीं, झूट बराबर पाप,
जाके ह्रदय सांच है, ताके ह्रदय आप.
इसके बाद भी ज़ेहनी बलूग़त (परपक्वता) ने सफ़र जारी रख्खा,
मुझे इस आप (ख़ुदा) में भी साँच की तलाश महसूस हुई.
लोगों ने इस आप की बाज़ार में पाप की दुकानें लगा रख्खी हैं
और आप सर भी नहीं झटकता.
कहीं कहीं यह आप भी बे सिर पैर की बातें करता है और ख़तरनाक पैग़ाम देता है.
इस आप के ताजिर मुफ़्त का हलुवा पूरी खा रहे हैं.
कहीं कोई कबीर नज़र नहीं आया जो मशक्क़त कर के अपने परिवार की रोज़ी रोटी कमा रहा हो. हमारा मौजूदा समाज हाँला कि तअलीम याफ़ता हुवा जा रहा है, इस के बावजूद धर्म के धंधे बाज़ो को बर्दाश्त कर रहा है. ऐसा माहौल बन गया है कि कोई भी इनसे पंगा नहीं लेना चाहता.
हक़ीक़त से सभी वाक़िफ़ हैं और चाहते हैं कि कोई आगे आकर मोर्चा संभाले, मगर वह मेरे घर का फ़र्द न हो, पड़ोसी हो.
पता नहीं लोग किस पयम्बर की आमद का इंतेज़ार कर रहे हैं.
ज़रुरत इस बात की है कि हम ख़ुद उठें और इन ख़ुदा फ़रोशों की दूकानों की बोहनी न होने दें. हमें मग़रिबी (पश्चिमी) मुल्कों की तरह जाग जाने की ज़रुरत है, न कि उन पर तनक़ीद करने की.
हम ख़ुद साख़ता जगत गुरु बने बैठे हैं. इन बातों में कोई दम है ?
मग़रिब जहाँ इंसान क्या हैवान भी तहफ्फ़ुज़ पाए हुए हैं और हम इंसान को अपने बे बुन्याद नज़रिए को मनवाने के लिए मार देते हैं. हमें अपने तौर तरीक़ों को सुधारने और संवारने की ज़रुरत है. हमारे जमहूरी निज़ाम से कोई उम्मीद नहीं. इसने तो चोर उचक्कों, बदमाशों, डाकुओं, ज़ालिमो और क़ातिलों को भी सरकार बनाने की इजाज़त दे रख्खी है.
क़ौम का सब से बड़ा सानेहा (विडंबना) है, जवानो को अधूरी और नाक़िस तअलीम,(खास कर मुसलमानों में) .
जो दीनी तअलीम बच्चों को दी जाती है वह मौजूदा पैमाने में उन्हें पीछे ले जाती है. बहुत कम लोग अपने बच्चों को जदीद तअलीम दे पाते हैं.
बच्चों के ज़ेहनों में माफ़ोक़ुल फ़ितरत (अलौलिक) अक़ायद कूट कूट कर भर दिए जाते हैं. तअलीम से फ़ारिग़ होने के बाद यह नौजवान पुख़ता उम्र के मोलवी और मुल्लाओं के हत्थे चढ़ जाते हैं फिर समाज पर यह नव जवान बोझ बन जाते हैं.
दूसरी तरफ़ बेदार तबक़े के नवजवान इनके मुक़ाबले में जब आला डिग्रियां लेकर आते हैं तो मदरसे इनको नक़ली ओहदेदार का रुतबा दे देता है. यही नव जवान जब ज़िम्मेदारी के बोझ तले आते हैं तो इन्हें फुटपाथी रोज़ी के सिवा कुछ हाथ नहीं लगता. यही नव जवान जब ऊधम मचाते हैं तो कभी बुत शिकन तालिबान बन जाते हैं तो कभी मस्जिद शिकन कार सेवक हैं.
धर्म व मज़हब हमेशा से हुक्मरानों के लिए बहतरीन हथियार रहे हैं.
या यूँ कहा जाए कि इनका ज़यादा हिस्सा सियासत है.
ख़ास कर इस्लाम जो बड़े शान से कहता है कि वह मुकम्मल निज़ाम ए हयात है.
धर्म इससे कुछ अलग है, यह मज़हब की होड़ में मज़हब नुमा हुवा जा रहा है.
धर्म की व्याख्या बहुत ही मुख़्तसर है,
"धर्म कांटे की सही नाप तौल धर्म है."
मौजूदा धर्म और मज़हब पूरी तरह से सियासत बन चुके हैं.
आज़ादी के 70 साल बाद इसकी बीमारी उप महाद्वीप में नए सिरे से फैल रही है, यह फैलाव इसके लिए दुर्भाग्य ही कहा जाएगा. चरित्र स्कूल से लेकर अदालत तक गिरता चला जा रहा है. क़ौम रचना को छोड़ कर छूमंतर की तरफ़ दौड़ी चली जा रही है.
कोई नहीं समझ पा रहा कि उप महाद्वीप को एक लामज़हब इंक़लाब की ज़रुरत है जिसमे अहिंसा की कोई महिमा न हो. तरक्क़ी याफ़्ता मुल्क हमारी इस अचेतन पर आँख गडोए हुए है, इन्हें पिछले दरवाज़े से हमारे घर में घुसने की इजाज़त भी मिल चुकी है. वह धर्म और मज़हब की बीमारी से मुक्त हो चुके हैं और हम पर यह दोहरी हुई जा रही हैं.
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