Wednesday, February 28, 2018

जुंबिशें - - - मैंने जो जाना


मैंने जो जाना - - - 

मेरा लड़कपन कुछ दिनों के लिए ही मज़हबी जाल में उलझा रहा. 
शऊर बेदार होने के बाद मैंने मज़हबी दुन्या को ख़ुद अपनी आँखों से देखा. धीरे धीरे कुछ बातें अजीब सी लगने लगीं. समाजी विरासत में मिला जज़्बा ए दीन पस्ता क़द होने लगा. 
मैंने देखा कि मज़हबी दुन्या की तक़रीर व तहरीर में और उनके अमल में तज़ाद (विरोधावास) है. उनका दर्स (शिक्षा) और उनकी तबलीग़ (प्रचार), शिकारी शिकरे की तरह मेरे सर पर मंडलाते हुए लगे. 
मैं ने देखा कि क़िस्से कहानियों को, तारीख़ी वाक़आत को और अरबों की दास्तानों को अक़ीदत बना कर हमें नमाज़ों में पढ़ाया जाता है. 
जिनका तअल्लुक़ न हमारे पुरखों से है, न ही मौजूदा हालात से. 
ख़याली जन्नत और दोज़ख़ से हमें बहलाया और दहलाया जाता है. 
वह या तो ज़मीन से ऊपर आसमान की बातें करते हैं, 
या फिर ज़मीन के नीचे क़ब्र की बातें करते हैं, 
ज़मीन पर बिखरे इंसानी मसाइल की नहीं. 
यह धर्म व मज़हब सिर्फ़ इंसानी ज़िन्दगी का घेरा बंदी करते हैं. 
बड़े बड़े जय्यदों और दिग्गजों को पाया कि यह किसी ख़याली ख़ुदा को धुरी बना कर सदाक़त (सत्य) के साथ कज अदाई करते हैं. 
यह एक तरह से इनकी ज़ाती मजबूरी भी होती है, क्योंकि इनको इल्म नहीं बल्कि इनको मज़हब पढ़ाया जाता है जो इन्हें और इनकी ज्ञान को महदूद कर देता है. अगर इन्हें मेडिकल साइंस पढ़ाया गया होता तो आज ये कैंसर और एड्स जैसे मर्ज़ों का इलाज कर रहे होते.
समाजी ना बराबरी का हाद्साती नतीजा यह है कि ज़्यादा तर आलिम ग़रीब घरों के बच्चे होते हैं. यह ग़ुरबत और बदहाली के आलम में दीनी अदारों (संस्था) के हवाले कर दिए जाते हैं. यह अदारे अक्सर ख़ैराती इमदाद के भरोसे होते हैं. यहीं से शुरू हो जाती है शख्सि़यत की पामाली (पतन). नतीजतन यह वही बोलेंगे, वही लिखेंगे, वही करेंगे जो इनको सिखलाया गया है.

धर्म और मज़हब को ख़ुद नज़री और ख़ुद फ़िकरी फूटी आँख नहीं भाती. वह इसे ख़ुद सरी और अहं का नाम देते हुए धिक्कारते है. 
प्रवचनों में तो वह देते हैं उपदेश, आत्म ज्ञान और स्वचिन्तन का, 
लेकिन श्रोता जब  आत्म ज्ञानी और स्वचिन्तक बनने लगता है तो इनके कान खड़े हो जाते है. यह उसे अहंकारी और ख़ुदसर की उपाधियाँ देने लगते हैं. अजीब दोहरा मेयार होता है इनका. जन साधारण को हदों में रखने के लिए इनकी लक्षमन रेखा हुवा करती है. इसके बाहर होते ही नकेलें खींच ली जाती हैं. इनकी न मानने वालों को अधर्मी, नास्तिक, मुलहिद और दहरया का ख़िताब दे दिया जाता है जोकि एक तरह से इनकी धार्मिक गालियाँ होती हैं, अगर ग़ौर से देखा जाए तो ख़ुद उनके भीतर अहं और ग़ुरूर कूट कूट कर भरा होता है. यह अपने मुख़ालिफ़ को स्टेज पर बैठ कर एलान्या गालियाँ दिया करते हैं. सरकारें कुछ नहीं बोलतीं, जैसे विरोधियों को गरियाना इनका जन्म सिद्ध अधिकार हो.  
इन धर्म गुरुओं की दुकाने लगी हुई हैं. अब तो यह नौटंकी जैसी हुई जा रही है. यह दूकाने अवाम को अफ़ीम की गोलियां बाँट रही हैं. यह नहीं चाहते कि लोग चेतें और जागें. कुछ लोग जाग कर भी आँख खोलने से हिचकिचाते हैं. यह उनके दिए हुए लक़ब से डरते हैं. 
मुझे पचास साल पहले यह उम्मीद थी कि तअलीम आने के बाद इन दूकानों की बोरियां सिमट चुकी होंगी मगर नतीजा उल्टा निकलता दिख रहा है. 
भारत में हिन्दू जागरण के नाम से अन्धविश्वाश का होल सेल होने लगा है. मिटटी पत्थर और कागज़ की बनी मूर्तियाँ दूध पीने लगी हैं. हिन्दू मानस को सुलाने के लिए नईं नईं गोलियां ईजाद हो रही हैं. देश पाखण्ड और अंध विश्वाश के चपेट में बढ़ चढ़ कर आमादा नज़र आता है.
दुन्या के बेशतर मुस्लिम मुल्क मज़हबी क़ैद खाने बने हुए हैं, भारत में भी मुस्लिम समाज पर मुल्लों का ग़लबा होता चला जा रहा है. 

नेहरु का सपना चकना चूर होता चला जा रहा है. समाज पर असत्य का बोलबाला होता चला जा रहा है. तमाम इंसानी क़द्रें और मानव मूल्य पामाल होते चले जा रहे है, जिसका बड़ा कारण धर्म व मज़हब हैं. सच और हक़  के मुंह पर फ़तवा जड़ दिया जाता है और असत्य का प्रचार और प्रसार सरकार की सर परस्ती में होता है. देश प्रेम का नारा इनका बड़ा सहायक साबित होता है कि मुख़ालिफ़ पर देश द्रोह का इलज़ाम लगा दिया जाए. 
मुस्लिम मुख़ालिफ़ को काफ़िर कह देते हैं, हिन्दू देश द्रोही.
इन मज़हबी मुजरिमों के साथ मेरा तालमेल नहीं बैठ पाता. इनके साथ जंग मेरी ज़िन्दगी का मक़सद है.

बहुत से लोग मुख़्तलिफ़ ख़ुदाओं की लुद्दी (कमपाउंड) बना कर 
"ऊपर वाले, मालिक या कोई ताक़त" का ख़ाक़ा पेश करते हैं, 
चलिए ऐसा कुछ है भी तो अच्छी बात है, हुवा करे, वह कायनात के निज़ाम को कंट्रोल करता होगा, इंसानी ज़िन्दगी के समाजी और मुआशी (आर्थिक) मुआमलों में उसका कोई दख्ल़ नहीं हो सकता. न ही ज़मीन पर उसने अपना कोई मुसतनद एजेंट मुक़र्रर किया है. जितने भी अवतार और पैग़म्बर हैं, सब ख़ुद साख़ता (स्यंभू ) हैं. 
यह धूर्त मानव समाज से अपना कमीशन ऐंठते है. 
ऊपर वाला अगर कोई है ? तो हुवा करे, कभी नीचे आएगा तो देख लेंगे. वह कुछ भी होगा मगर अपने बन्दों को सज़ा देने का व्योहार करने वाला न होगा, न ही इबादत का भूखा. 
अगर वह क़हहार है तो ख़ुदा नहीं शैतान होगा. 
इंसान इस कायनात का एक ख़ूबसूरत और ख़ुशबूदार फूल है. 
इंसान, हैवान, चरिंद व परिन्द, कीट पतंग, पेड़ पौदे, ग़रज़ कि जितने जीवधारी हैं, इस कायनात में ज़िंदगी की अलामतें हैं, 
फ़ितरत के मज़ाहिरे हैं. 
अगर कोई ख़ुदा है तो यही सूरतें ख़ुदा का जुज़्व है. 
कोई दो चार दिन, कोई दोचार महीने, कोई दो चार साल और कोई सौ पचास साल के लिए ज़ाहिर होता है और फिर रूपोश हो जाता है. 
इंसान के आलावा बाक़ी तमाम जीव इस ज़िन्दगी का र.क्स करके चले जाते हैं, अभागा इन्सान ही तमाम जिंदगी ख़ारजी और ग़ैर ज़रूरी बकवासों में ज़िन्दगी का अनमोल तोहफ़ा गँवा देता है और बनता है अशरफ़ुल मख़लूक़ात (जीवों में श्रेष्ट).

बहर हाल हम इसान हैं, 
इंसान के सिवा और कुछ भी नहीं. 
हमारी खुशबु इंसानियत है, 
धर्म और मज़हब नहीं. 
इंसानियत की बूटी ही आज तक इंसान को बचाए हुए है 
वरना इन धर्म और मज़हब ने कोई कसर नहीं छोड़ी कि 
आदमी इनके शिकंजे में आए या फिर मौत को गले लगाए. 
ज़रुरत है इंसान को कि वक़्त का हम सफ़र बने 
और वक़्त के साथ साथ ख़ुद को बदलता जाए. 
जब मानव मानवता से लबरेज़ हो जाएगा 
तो महामानव का जन्म होना शुरू हो जाएगा.  
इसके बाद महान समाज ख़ुद बख़ुद वजूद में आ जाएगा. 
सदियों से मज़ाहिब हमें हिन्दू, मुसलमान, ईसाई वग़ैरा बनाते तो चले आए हैं मगर इंसान कभी नहीं बनाया. 
हमें सिर्फ़ हमारे एहसास और हमारी चेतना ही हमें इंसान बना सकते हैं, मज़हब नहीं.
धर्मों से पाई मुक्ति, मज़हब से पाई छुट्टी,
इंसानियत की बूटी पीड़ा हरे है मान की. 
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