मेरा इख़्तेसार (संक्षेप) - - -
ख़ुश हाल किसान का पोता और बदहाल मज़दूर का बेटा हूँ.
बचपन की महरूमियाँ अकसर पीछा किया करती हैं, कभी क़लक़ बन कर तो कभी नेअमत की तरह.
पेट फ़ाक़ो का शिकार होता तो आँखें शर्मिंदगी का.
ग़ैरत मंद माँ के मासूमों ने कभी किसी रिश्तेदार के सामने हाथ नहीं फैलाया. बेबसी और बेकसी के आलम में माँ का छटपटाता हुवा साया हमारे सरों से गुम हो गया था. छः सात का सिन रहा होगा मेरा.
माँ की मौत के दूसरे दिन मेरे दिल में एक हूक सी उट्ठी थी.
रो रो कर बुरा हाल कर लिया था, ज़िद की कि मैं भी अपनी बीबी (माँ) के पास चला जाऊंगा, नानी ने अपना वास्ता दिया कि मै अकेली कैसे रहूंगी, तुम्हारे बिना ?
नानी मुझे बहुत चाहती थीं, दर अस्ल उनका जवां साल बेटा कुछ दिन पहले ही चल बसा था, तो बीबी ने मुझे उनके गोद में डाल दिया था.
नानी पर तरस खाकर मैंने अपनी ज़िद छोड़ दी थी. मैं ने उनके सीने से लिपट कर नईं अमाँ पाई थी.
माँ की मय्यत को क़ब्र में उतारने और दफ़नाने के अमल को देख कर मैं मौत से वाक़िफ तो हो ही गया था, नानी की गोद में मेरे लाशऊर ने राहत महसूस किया.
बाप की नाकारगी का ज़िक्र न करना ही बेहतर होगा. उनकी तरफ़ से यही ग़नीमत था कि उन्हों ने कभी हम लोगों को हराम नहीं खिलाया, अगर हलाल न खिला सके. हमारी विरासत भी पामाल नहीं किया.
भाई और बहन में मैं सब से छोटा था, मुन्ने उर्फियत पाई थी. बड़े भाई ज़करिया तर्क ए दुन्या करके ज़िन्दगी को आज़माइश गाह के हवाले कर दिया था.
दूसरे नंबर पे अजमल भाई थे, रंगा रंग, जमाल बीन, और बा कमाल शख्सि़यत पाई थी. कारोबार में मुजाहिद, जद्द व जहद करते हुए ही जान दे दी. उनकी हादसाती मौत मेरे लिए बड़ा अलमिया है.
उवैस भाई तीसरे नंबर पर थे, उन्हों ने मुझे जादुई चाहत दी थी,
काश मैं उनकी चाहत का शिकार न बनता.
मुझसे बड़ी बहन क़ुबरा थीं, माँ के मौत के बाद वह ही घर की मिनी माँ बन गई थीं.
नानी ने जिन्हें कि हम लोग अम्मा कहते थे, अपने तीन पीढ़ियों को संभाला. बद तरीन हालात में मैं कैसे जवान हो गया और अम्मा (नानी) ने सौ साल की उम्र कैसे पाई, इन बातों का यक़ीन नहीं होता.
दस साल की उम्र तक तअलीम गाह में क़दम रखने की नौबत नहीं आई. मेरे मामू मुंशी आफ़ाक़ अहमद ने 1955 में एक जूनियर हाई स्कूल खोला, पांचवीं पास बच्चों की एक कक्षा बनाई, कक्षा के बाहर मोहल्ले के लाख़ैरे बच्चों की दूसरी नुमाइशी कक्षा बनाया. उन्हीं लाख़ैरों में से एक मैं था. मुझे मामू के दो शफ़ीक़ हाथ मिल गए थे और मामू को घर का सौदा सुलुफ़ लाने के लिए मेरे दो छोटे छोटे पाँव.
बस फिर क्या था, जल्दी ही मै कक्षा 6 के विद्यार्थियों के साथ हम क़दम हो गया. छः सात पास करते हुए मैं आठवीं में कक्षा में आठवें नंबर पर था और नवें में क्लास टॉप कर गया.
पांच साल में दसवीं पास करने वाले तालिब इल्म के पास कोई रास्ता न था कि पढ़ाई जारी रख पाता. पढ़ाई छूट जाने का क़लक़ बरसों रहा.
कालेज का अहाता न सही, मेरी पढ़ाई तो हमेशा ही जारी रही.
किताबों की दौलत से हाथ कभी ख़ाली न रहा.
पांच साला तालिब इल्मी जिंदगी (विद्यार्थी जीवन) के दौरान मुझे शिद्दत से एहसास रहा कि ग़रीबी हमारी सब से बड़ी दुश्मन है. अकेले में अक्सर मै इससे इंतेक़ाम लेने का अहद करता रहता.
सपने साकार हुए, मैंने अपने परिवार को ही नहीं अपने अहबाब को भी ग़रीबी की खाईं से बाहर निकाला.
बड़ी पाक साफ़ रोज़ी कमाई इससे मुझे सच्ची ख़ुशी का एहसास होता है.
पुवर फंड पाने वाले बच्चे ने लाखों रुपिए इनकम टैक्स अदा किए.
यह काफ़ी नहीं है क्या ?
कालेज ने मुझे अक्षर ज्ञान दिया और पुवर फंड भी दिया,
मैं ने कालेज को एक कक्षा बनवा कर दिया, शायद कुछ हक़ अदा हुवा हो.
ग़ुरबत की खाई पाट चुकने के बाद मैं कमाई के दौड़ से भी बाहर आ गया. अब पैसे के पीछे भागना पाप जैसा लगने लगा. कभी कभी सोचता हूँ कि दौलत की प्यास भी कुछ लोगों की बद नसीबी होती है. मुझे इससे भी नजात मिल गई है. इस पड़ाव का अगला मोड़, ज़ेहन में दबी हुई बरसों पुरानी चिंगारियों की तरफ़ ले गया. चिंगारियां ज्वाला मुखी का रूप धारन करके "जुंबिसें" में समा गईं.
("जुंबिसें" मेरी पहली किताब का पद्य रूप है. इसके बाद गद्य में भी दिल की भड़ास निकाली)
यह "जुंबिसें" मैं अपने नीम बेदार मुआशरे को पेश कर रहा हूँ.
मेरा तअर्रुफ़ (परिचय)अधूरा रह जाएगा, अगर मैं यह न बतलाऊँ कि मैं किस खेत की मूली हूँ.
उत्तर प्रदेश, ज़िला राय बरेली, क़स्बा सलोन में एक मोहल्ला ए नाहमवार "चौधराना" है, जिसकी नाहमवारी अपने बाशिंदों पर भी पूरा असर रखती है, यहीं पर ग़ालिबन 1944 में मैं पैदा हुवा.1971 में मेरी शादी हुई,
दो बेटियों के बाद दो बेटे हैं. चारो अवलादें इल्म से मालामाल अपनी अपनी दुन्या में आबाद हैं. चारो नियोजित परिवार हैं, हर एक के दो दो बच्चे, भाई बहन हैं.
मेरी बची खुची पूँजी निकहत परवीन हैं जो कि अनजाने में मेरे निकाह में आ गई थीं.
मैं ठहरा ठेठ दहरया (नास्तिक) और वह कट्टर मुसलमान.
दोनों एक दूसरे को पाल पोस रहे हैं.
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