नज़्म
क़र्ब ए तन्हाई
तू भी चल उस सम्त, जिस पर ये ज़माना है रवां ,
वर्ना छुट जाएगा 'मुंकिर' तुझ से तेरा कारवां .
अपने धुन की बोझ लेकर, तनहा तू रह जाएगा ,
इन्किशाफ़ ऍ राज़ ऍ हस्ती किस पे तू झलकाएगा .
क्यों गुरेज़ाँ है जहाँ, खुद अपनी ही तकमील से ,
क्यों झुसस जाती है दुन्या, सच की इक क़िनदील से .
नव अज़ाँ का सिलसिला, लेता है क्यों मुद्दत तवील ,
सौ सफ़र में रख के क्यों, आता है अगला संग ए मील .
ज़ेहन कैसे हम सफ़र हों , इरतेक़ाई चाल के ,
मुज़्तरिब फ़ितरत को हैं, हर लम्हा सौ सौ साल के.
इंतज़ार इ वक़्त बन, वह दिन यक़ीनन आएगा ,
मज़हबों के इस जुनूँ से, आदमी थर्राएगा .
قرب تقنہائی
تو بھی چل اس سمت ، جس پر یہ زمانہ ہے رواں
ورنہ چھٹ جایگا 'منکر' ، تجھ سے تیرا کاروں
اپنی دھن کا بوجھ لیکر ، تنہا تو رہ جاےگا
انکشاف راز ہستی ، کس کو تو جھلکایگا ٠
*
کیوں گریزاں ہے جہاں ، خود اپنی ہی تکمیل سے
کیوں جھلس جاتی ہے دنیا ، سچ کی اک کندیل سے
نو اذان کا سلسلہ ، کیوں لیتا ہے مددت طویل
سو سفر میں رکھ کے ، کیوں آتا ہے اگلا سنگ میل ٠
*
ذہن کیسے ہم سفر ہوں ، ارتقائی چال کے
مضطرب فطرت کو، ہر لمحے ہیں سو سو سال کے
انتظار وقت بن ، وہ دن یقیناً آ یگا ،
مذہبوں کے اس جنوں سے ، آدمی شرمایگا ٠
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