Monday, February 22, 2016

Junbishen 754




 ग़ज़ल

मन को भेदे, भय से गूथे, विश्वासों का जाल,
अंधियारे में मुझे सताए, मेरा ही कंकाल।

तन सूखा, मन डूबा है, तू देख ले मेरा हाल,
रोक ले शब्दों कोड़ों को, खिंचने लगी है खाल।

सास ससुर हैं लोभी मेरे, शौहर है कंगाल,
नन्द की शादी रुकी है माँ, मत भेज मुझे ससुराल।

इच्छाएँ बैरी हैं सुख की, जी की हैं जंजाल,
जितनी कम से कम हों पूरी, बस उतनी ही पाल।

जब जब बाढ़ का रेला आया, जब जब पडा अकाल,
जनता दाना दाना तरसी, बनिया हुवा निहाल।

वाह वाह की भूख बढाए, टेट में रक्खा माल,
'मुंकिर' छोड़ डगर शोहरत की, पूँजी बची संभाल।

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