Wednesday, February 17, 2016

Junbishen 752




 ग़ज़ल

बहुत दुखी है जीता है वह, बस केवल अभिलाषा में,
सांस ऊपर की आशा में ले, नीचे जाए निराशा में.

बड़ी तरक्की की है उसने, लोगों की परिभाषा में,
पाप कमाया मन मन भर, और पुन्य है तोला माशा में.

अय्याशी में कटी जवानी, पाल न पाए बच्चों को,
अंत में गेरुवा बस्तर धारा, पल जाने की आशा में.

महशर के इन हंगामों को, मेरे साथ ही दफ़ना दो,
अमल ने सब कुछ खोया पाया, क्या रक्खा है लाशा में.

ज्ञानी, ध्यानी, आलिम, फ़ाज़िल, श्रोता गण की महफ़िल में,
'मुंकिर' अपनी ग़ज़ल सुनाए, टूटी फूटी भाषा में.

*****

2 comments:

  1. आपने लिखा...
    कुछ लोगों ने ही पढ़ा...
    हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
    इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 19/02/2016 को पांच लिंकों का आनंद के
    अंक 217 पर लिंक की गयी है.... आप भी आयेगा.... प्रस्तुति पर टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।

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  2. वाह...
    बेहतरीन..
    गेरुवा बस्तर धारा
    पल जाने की आशा में
    साधुओं की धज्जियाँ
    उड़ा दी आपने
    इस ग़ज़ल को सहेजने की
    हसरत है...
    इज़ाज़त हो तो ले जाऊँ
    सादर
    यशोदा

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