क़तआत
मौत के राग
तबलीग है कि मौत को हर वक़्त याद कर ,
मैं कहता हूँ कि मौत की कोई ख़बर न रख ,
इक लम्हा मौत का है , मुसलसल है जिंदगी ,
हर रोज़ खुद सरी हो, तो हर रोज़ बे सरी .
साँच की ताप
कुछ अगर ख़ाहिश न हो, तो है अधूरी ज़िन्दगी ,
ख़ाहिशें अंधी हैं, गर हस्ती में हो नाख़ान्दगी ,
इल्म भी बेकार है , इन्सां अगर है बेअमल ,
सच नहीं मुंकिर तो है , इल्मो ओ हुनर शर्मिदगी .
रिआयत
इम्कानी गिरावट हो कि अखलाक़ी बुलंदी ,
हों आप की या मेरी , इक हद हैं सभी की ,
हैरत से हिक़ारत से, यूँ मुजरिम को न देखो ,
लगती है दिल आज़ारी , कहीं उसमें छिपी सी .
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