रूबाइयाँ
गफ़लत थी मेरी या कि तुम्हारी जय थी.
ग़ालिब थी मुरव्वत जो अजब सी शय थी,
तुम पर था चढ़ा जोश तशद्दुद का खुमार,
दो जाम भरे सुल्ह के, मेरी मय थी.
ऐ गाज़ी ए गुफ़तार ज़रा थोडा सँभल,
माहौल में है तेरे छिपी तेरी अजल,
यलगार लिए है तेरी गुफ्तार की बू,
गीबत का नतीजा न हो चाकू का अमल.
ज़िल्लतें उठाए , सर झुकाए चलते हैं ,
दाग़ ए दिल फफोले की तरह जलते हैं ,chal die
अहद कर चुके , कभी न लेंगे बदला ,
इन्तेक़ाम लिए हाथ को हम मलते है ,
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