गज़ल
तारीकियों१ से पहले, सरे शाम चाहिए,
हर सुब्ह आगही से भरा, जाम चाहिए।
अब जशने हुर्रियत२ को फ़रामोश भी करो,
आजादी ऐ मुआश3 का पैग़ाम चाहिए।
आरी हथौडा छोड़ के, चाक़ू उठा लिया,
मेहनत कशों के हाथों को, कुछ काम चाहिए।
मैं भी दबाए बैठा था, मुद्दत से उसके ऐब,
उस को भी एक ज़िद थी, कि इलज़ाम चाहिये।
कानो में रूई डाल के, बैठा है वह अमीन,
कुछ शोर चाहिए, ज़रा कोहराम चाहिए।
जद्दो जेहाद में, जाने जवानी कहाँ गई,
"मुंकिर" को बाक़ियात में आराम चाहिए।
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