दोहे
हम में तुम में रह गई, न नफरत न ही चाह,
बेहतर है हो जाएं अब, अलग अलग ही राह.
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'मुनकिर' हड्डी मॉस का , पुतला तू मत पाल,
तन में मन का शेर है, बाहर इसे निकाल.
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* तुलसी बाबा की कथा, है धारा प्रवाह,
राम लखन के काल के, जैसे होएँ गवाह.
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कुदरत का ये रूप है, देख खिला है फूल,
अल्लाह की धुन छोड़ दे, पत्थर पूजा भूल.
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कुदरत ही है आईना, प्रक्रति ही है माप,
तू भी इसका अंश है, तू भी इसकी ताप.
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