Friday, October 5, 2012

रुबाईयाँ 20X5=100


रुबाईयाँ 

योरोप की तरह अपना भी भारत जागे,
क्या कहना, निकल जाए ये सबसे आगे,
बन जाएँ सभी हिन्दी मुकम्मल इन्सां ,
गर धर्म ओ मज़ाहिब की मुसीबत भागे.
*

देहात की मुस्लिम थी, ग़र्क़े-सना, 
" आ जाओ मोरे अंगना कभी, अल्ला मियाँ "
लाहौल पढ़ी, सुनके, ये ज़ाहिद बोले,
"गोया कि कन्हैया जी, हुए अल्ला मियाँ."
*

'मुनकिर' ये बताओ, पीकर आए हो क्या?
खुशबुओं के परदे में छिपाए हो क्या?
कुछ दिन ही हुए हैं कि हुए उन्सठ के,
कुछ उम्र से पहले सठियाए हो क्या?
*

बेलौस निहत्थे से सिपाही बन जाओ, 
मुख़्तसर सफ़र के, इक रही बन जाओ, 
दूर रखकर ही देखो, ये ख़ुशी और गम, 
आदी न बनो,इनकी गवाही बन जाओ. 


जमहूर में एहसास की पस्ती देखी, 
दौलत को अमीरों पे, बरसती देखी, 
दानो को तरसती हुई बस्ती देखी, 
अफ्लास के संग, मौज और मस्ती देखी. 




2 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (07-10-2012) के चर्चा मंच पर भी की गई है!
    सूचनार्थ!

    ReplyDelete
  2. जमहूर में एहसास की पस्ती देखी,
    दौलत को अमीरों पे, बरसती देखी,
    दानो को तरसती हुई बस्ती देखी,
    अफ्लास के संग, मौज और मस्ती देखी.
    *
    बेहद सुन्दर प्रस्तुति ...

    ReplyDelete