बहुत दुखी है जीता है वह बस केवल अभिलाषा में,
सांस ऊपर की आशा में ले, नीचे जाए निराशा में.
बड़ी तरक्की की है उसने लोगों की परिभाषा में,
पाप कमाया मन मन भर और पुन्य है तोला माशा में.
अय्याशी में कटी जवानी, पाल न पाए बच्चों को,
अंत में गेरुवा बस्तर धारा, पल जाने की आशा में.
महशर के इन हंगामों को मेरे साथ ही दफ़ना दो,
अमल ने सब कुछ खोया पाया, क्या रक्खा है लाशा में.
ज्ञानी, ध्यानी, आलिम, फ़ाजिल, श्रोता गण की महफ़िल में,
"मुंकिर" अपनी ग़ज़ल सुनाए टूटी फूटी भाषा में.
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बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteस्वतन्त्रता की 65वीं वर्षगाँठ पर बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!