Wednesday, August 31, 2011

ग़ज़ल - - - यह गलाज़त भरी रिशवत


यह गलाज़त भरी रिशवत,
लग रहा खा रहे नेमत.
 
बैठी कश्ती पे माज़ी के,
फँस गई है बड़ी उम्मत.
 
कुफ्र ओ ईमाँ का शर लेके,
जग में फैला दिया नफरत.
 
सर कलम कर दिए कितने,
लेके इक नअरा ए वहदत.
 
सर बुलंदी हुई कैसी?
आप बोया करें वहशत.
 
धर्म ओ मज़हब हो मानवता,
रह गई एक ही सूरत.
 
माँ ट्रेसा बनीं नोबुल,
खिदमतों से मिली अज़मत.
 
हो गया हादसा आखिर,
हो गई थी ज़रा हफ्लत.
 
खा सका न वोह 'मुंकिर",
खा गई उसे है उसे दौलत.
*****
*माज़ी= अतीत *उम्मत=मुस्लमान *शर=बैर *वहदत=एकेश्वर

Monday, August 29, 2011

ग़ज़ल - - - हम घर के हिसरों का सफ़र छोड़ रहे हैं




हम घर के हिसारों का सफ़र छोड़ रहे हैं,
दुन्या भी ज़रा देख लें, घर छोड़ रहे हैं.
 
मन में बसी वादी का पता ढूंढ रहे हैं,
तन का बसा आबाद नगर छोड़ रहे है.
 
जाते हैं कहाँ पोंछ के माथे का पसीना?
लगता है कोई कोर कसर छोड़ रहे हैं.
 
फिर वाहिद ए मुतलक की वबा फैल रही है,
फिर बुत में बसे देव शरर छोड़ रहे हैं.
 
सर मेरा कलम है कि यूं मंसूर हुवा मैं,
"जुंबिश" को हवा ले उडी, सर छोड़ रहे हैं.
 
है सच की सवारी पे ही मेराज मेरा यह,
"मुंकिर" नहीं जो 'उनकी' तरह छोड़ रहे हैं.
*****

*हिसारों=घेरा *वाहिद ए मुतलक=एकेश्वरवाद यानि इसलाम *शरर=लपटें *.

Saturday, August 27, 2011

ग़ज़ल - - - इस्तेंजाए खुश्क की इल्लत में लगे हैं




इस्तेंजाए खुश्क की इल्लत में लगे हैं,
वह बे नहाए धोए तहारत में लगे हैं.#
 
मीरास की बला ये बुजुर्गों से है मिली,
तामीर छोड़ कर वह अदावत में लगे हैं.
 
वह गिर्द मेरे अपनी गरज ढूँढ रहा है,
हम बंद किए आँख मुरव्वत में लगे हैं.
 
दोनों को सर उठाने की फुर्सत ही नहीं है,
खालिक से आप, हम है कि खिल्क़त से लगे हैं.
 
तन्हाई चाहता हूँ तड़पने के लिए मैं,
ये सर पे खड़े मेरी अयादत में लगे हैं.
 
"मुंकिर" ने नियत बांधी है अल्लाह हुअक्बर,
फिर उसके बाद आयते गीबत में लगे हैं.$
*****
# इस शेर का मतलब किसी मुल्ला से दरयाफ्त करें.*मीरास=पैत्रिक सम्पत्ति *तामीर=रचनात्मक कार्य *खालिक=खुदा *अयादत =पुरसा हाली $=कहते हैं की नमाज़ पढ़ते समय शैतान विचारो में सम्लित हो जाता है.

Wednesday, August 24, 2011

ग़ज़ल


आज़माने की बात करते हो,
 
दिल दुखाने की बात करते हो।
 
 
 
उसके फ़रमान में सभी हल हैं,
 
किस फ़साने की बात करते हो।
 
 
 
मुझको फुर्सत मिली है रूठों से,
 
तुम मनाने की बात करते हो।
 
 
ऐसी मैली कुचैली गंगा में,
 
तुम नहाने की बात करते हो।
 
 
"मेरी तकदीर का लिखा सब है,"
 
मार खाने की बात करते हो।
 
 
झुर्रियां हैं जहाँ कुंवारों पर ,
 
उस घराने की बात करते हो।
 
 
हाथ 'मुंकिर' दुआ में फैलाएं,
 
क़द घटाने की बात करते हो।

Wednesday, August 17, 2011

ग़ज़ल ------साफ़ सुथरी सी काएनात मिले

साफ़ सुथरी सी काएनात मिले, 

तंग जेहनो से कुछ नजात मिले।


संस्कारों में धर्म और मज़हब,

न विरासत में जात, पात मिले। 

   

आप की मजलिसे मुक़द्दस1 में,

सिर्फ़ फितनों के कुछ नुक़ात2 मिले।  


तुझ से मिल कर गुमान होता है,

बस की जैसे खुदा की ज़ात मिले।


उलझी गुत्थी है सांस की गर्दिश,  

एक सुलझी हुई हयात मिले।   


हर्फे-आखीर हैं तेरी बातें,   

इस में ढूंडा कि कोई बात मिले।       


१-सदभाव-सभा २-षड़यंत्र-सूत्र

Saturday, August 13, 2011

ग़ज़ल - - -बहुत दुखी है जीता है वह बस केवल अभिलाषा में


बहुत दुखी है जीता है वह बस केवल अभिलाषा में,
सांस ऊपर की आशा में ले, नीचे जाए निराशा में.
 
बड़ी तरक्की की है उसने लोगों की परिभाषा में,
पाप कमाया मन मन भर और पुन्य है तोला माशा में.
 
अय्याशी में कटी जवानी, पाल न पाए बच्चों को,
अंत में गेरुवा बस्तर धारा, पल जाने की आशा में.
 
महशर के इन हंगामों को मेरे साथ ही दफ़ना दो,
अमल ने सब कुछ खोया पाया, क्या रक्खा है लाशा में.
 
ज्ञानी, ध्यानी, आलिम, फ़ाजिल, श्रोता गण की महफ़िल में,
"मुंकिर" अपनी ग़ज़ल सुनाए टूटी फूटी भाषा में.
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Tuesday, August 9, 2011

ग़ज़ल - - - तुम भी अवाम की ही तरह डगमडा गए


 
तुम भी अवाम की ही तरह डगमडा गए,
मेरे यकीं के शीशे पे पत्थर चला गए.
 
 
घायल अमल हैं और नज़रिया लहू लुहान,
तलवार तुम दलीलों की ऐसी चला गए.
 
 
मफरूज़ा हादसात तसुव्वुर में थे मेरे,
तुम कार साज़ बन के हक़ीक़त में आ गए.
 
 
पोशीदा एक डर था मेरे ला शऊर में,
माहिर हो नफ़्सियात के चाकू थमा गए.
 
 
भेड़ों के साथ साथ रवाँ आप थे जनाब,
उन के ही साथ गिन जो दिया तिलमिला गए.
 
 
खुद एतमादी मेरी खुदा को बुरी लगी,
सौ कोडे आ के उसके सिपाही लगा गए.
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*मफरूज़ा=कल्पित *कार साज़=सहायक *ला शऊर=अचेतन मन *नफ़्सियात=मनो विज्ञानं *खुद एतमादी=आत्म विश्वास

Monday, August 8, 2011

ग़ज़ल - - - अपने घरों में मंदिर ओ मस्जिद बनाइए


अपने घरों में मंदिर ओ मस्जिद बनाइए,
अपने सरों पे धर्म और मज़हब सजाइए.

उस सब्ज़ आसमान के नीचे न जाइए,
इस भगुवा कायनात से खुद को बचाइए.

सड़कों पे हो नमाज़ न फुट पथ पर भजन,
जो रह गुज़र अवाम है, उस पर न छाइए.

बचिए ज़ियारतों से, दर्शन की दौड़ से,
थोडा वक़्त बैठ के खुद में बिताइए.

परिक्रमा और तवाफ़ के हासिल पे गौर हो,
मत ज़िन्दगी को नक़ली सफ़र में गंवाइए.

बच्चों का इम्तेहान है, बीमार घर पे हैं,
मीलाद ओ जागरण के ये भोपू हटाइए.

अरबों की सर ज़मीन है जंगों से बद नुमा,
"मुंकिर" वतन की वादियों में घूम आइए.
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Saturday, August 6, 2011

ghazal जहान ए अर्श का बन्दा है, बार ए अन्जुमन होगा,


जहान ए अर्श का बन्दा है, बार ए अन्जुमन होगा,
मसाइल पेश कर देगा, नशा सारा हिरन होगा.
 
मुझे दो गज़ ज़मीन देदे अगर शमशान में अपने,
मज़ार ए यार पे अर्थी जले तेरी, मिलन होगा.
 
मिले हैं पेट पीठों से, तलाशी इनकी भी लेना,
कहीं कुछ अन्न मिल जाए तो बाकी है हवन होगा.
 
वो जिस दिन से गलाज़त साफ़ करना बंद कर देगा,
कोई सय्यद न होगा और न कोई बरहमन होगा.
 
अपीलें सेक्स करता हो, तो ऐसा हुस्न है बरतर,
अजब मेयार लेके हुस्न का अब बांक पन होगा.
 
फिरी के, गिफ्ट के, और मुफ्त के, हमराह हैं सौदे,
खरीदो मौत गर "मुंकिर" तो तौफ़े में कफ़न होगा.
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Thursday, August 4, 2011

ग़ज़ल - - - आलम ए गुम की चीज़ होती है



आलम ए गुम की चीज़ होती है,
जान कितनी अज़ीज़ होती है.
 
 
अच्छा शौहर गुलाम होता है,
अच्छी बीवी कनीज़ होती है.
 
 
बात बिगडे तो जाए रुसवाई,
बात बन कर तमीज़ होती है.
 
मुफ्त का मॉल खाने वालों की,
खाल कितनी दबीज़ होती है.
 
 
फिल्म बे दाग़ रहनुमाओं की ,
देखिए कब रिलीज़ होती है.
 
 
बे खयाली में लम्स की बोटी,
हाय कितनी लज़ीज़ होती है.
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*कनीज़=दासी * दबीज़=मोटी*लम्स=स्पर्श