हिंदुत्व
सदियों से गढ़ते गढ़ते, गढ़ाया है ये हिदुत्व,
पलकों को मूंदते नहीं, आया है ये हिंदुत्व।
तबलीग़, जोर व् ज़ुल्म, जिहादों से दूर है,
सद भावी आचरण से, नहाया है ये हिंदुत्व।
तारीख़ का लिहाज़ है, जुग़राफ़िया का पास,
आब ओ हवा में अपने, नहाया है ये हिंदुत्व।
नदियों में तैरता है, पहाड़ों में बसा है,
सूरज को, चाँद तारों को, भाया है ये हिंदुत्व।
आओ मियाँ कि देखें, ज़रा घुस के इसका हुस्न,
पुरखों का है, कहाँ से पराया है ये हिंदुत्व।
क़द्रें नई समेट के, चलता है डगर पे,
हाँ, इर्तेकाई हुस्न की, काया है ये हिंदुत्व।
तहजीब ऍ अर्ज़ की ये, मुसलसल हयात है,
गर नाप तौल हो, तो सवाया है ये हिंदुत्व।
अरबों के फ़ल्सफ़े हि, न भाएँ ख़मीर को,
'मुंकिर' को भाए हिन्द, सुहाया है ये हिंदुत्व।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (25-12-2015) को ""सांता क्यूं हो उदास आज" (चर्चा अंक-2201) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'