Monday, March 30, 2015

Deewan 81 Nazm

नज़्म 
वजूद के औराक़ 
इर्तेका के मेरे औराक़ पढो ,
लाखों सालों का सफ़र है मेरा,
हादसों और वबाओं से बचाता खुद को ,
अरबों सालों की विरासत हूँ मैं।

इर्तेका के मेरे औराक़ पढो ,
जानते हो मुझे तुम लाल बुझक्कड़ की तरह,
नाप देते हो मुझे तुम कभी कुछ सालों में ,
तो कभी पाते हो कुछ सदियों की तारीख़ों में,
मेरे आग़ाज़ का पुतला बनाए फिरते हो,
कुंद ज़ेहनों से गढ़ा धरती का पहला इन्सां ,
जा बजा उसकी कहानी सुनाए रहते हो ,
मेरे माज़ी के वकीलान ओ गवाहान ए वजूद ,
तुमको लाहौल के शैतान नज़र आते हैं।

इर्तेका के मेरे औराक़ पढो ,
मेरे माज़ी में नहीं है, कहीं भी कुफ़्र कोई,
नक़्श फ़ितरत हूँ , सदा मुंकिर ओ इक़रारी हूँ,
लड़ते भिड़ते हों ख़ुदा जब तो खुला मुल्हिद हूँ,
दहरी गोदों का हूँ पर्वर्दा, दहरिया हूँ मैं।

इर्तेका के मेरे औराक़ पढो ,
मेरी तहजीब तो ज़ीने बज़ीने चढ़ती है , 
अपने बुन्याद के पत्थर का पास रखते हुए ,
वक़्त को रोज़ नए रूप का पैकर देकर,
आलम ओ बूद को कुछ नक़्श ए क़दम देती है।
मेरी तहज़ीब रवाँ रहती है आगे के लिए,
वादी में बस्ती हुई, पर्बतों पे चढ़ती हुई 
देवियाँ रचती हुई, देवता रचाती हुई ,
नित नई खोज नए इल्म ओ फ़न को पाती हुई ,
जनती रहती है अजंता, एलोरा, खजुराहो ,
मिस्र को क़ल्ब ए पिरामेड अता करती है,
रुक भी जाती है पडाओं पे कभी थक कर ये, 
जिसको कुछ लोग ये कहते हैं की मंजिल है यही,

इर्तेका के मेरे औराक़ पढो ,
रखने आते हैं सफ़र में मेरे अक्सर यूँ ही,
और आती है गुबारों की फ़िज़ा राहों में,
मैं ज़रा देर को रुक जाता हूँ,
उनकी गिरदान हुवा करती है उलटी गिनती,
वह तवाज़ुन को तहो बाला किया करते हैं ,
ज़ाया कर देते हैं बरसों की जमा पूँजी को ,
ज़ेर ए पा ज़ीने हटाते हैं, मेरे हासिल के ,
करते रहते हैं मुअल्लक़ मेरी मीनारों को,
बरसों लगते हैं मुझे फिर से सतह पाने में,

इर्तेका के मेरे औराक़ पढो ,
मेरी तक्मीली हकीक़त ये है - - -
" वादी मख़लूक़ की है और गुल ए इन्सां मैं हूँ ,
मेरे खुशबू को नज़रिए की ज़रुरत ही नहीं 
बनने वाला हूँ मुकम्मल इन्सां 
मेरी रंगत को नहीं चाहिए कोई मज़हब"

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