ख़ारजी हैं सब तमाशे, साक़िया इक जाम हो,
अपनी हस्ती में सिमट जाऊं तो कुछ आराम हो।
ख़ुद सरी, खुद बीनी, खुद दारी, मुझे इल्हाम है,
क्यूं ख़ुदा साजों की महफ़िल से मुझे कुछ काम हो।
तुम असीरे पीर मुर्शिद हो कि तुम मफ़रूर हो,
हिम्मते मरदां न आई या की तिफ़ले ख़ाम हो।
हाँ यक़ीनन एक ही लम्हे की यह तख़लीक़,
वरना दुन्या यूं अधूरी और तशना काम हो।
हम पशेमाँ हों कभी न फ़ख्र के आलम में हों,
आलम मासूमियत हो बे ख़बर अंजाम हो।
अस्तबल में नींद की मारी हैं "मुंकिर" करवटें,
औने पौने बेच दे घोडे को खाली दाम हो.
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