ग़ज़ल
ग़ुस्ल व् वज़ू से, दाग़े अमल धो रहे हो तुम,
मज़हब की सूइयों से, रफ़ू हो रहे हो तुम.
हर दाना दाग़दार हुवा, देखो फ़स्ल का,
क्यूँ खेतियों में अपनी ख़ता, बो रहे हो तुम.
हथियार से हो लैस, हँसी तक नहीं नसीब,
ताक़त का बोझ लादे हुए, रो रहे हो तुम.
होना है वाक़ेआत ए मुसलसल वजूद का,
पूरे नहीं हुए हो, अभी हो रहे हो तुम.
इंसानी अज़मतों का, तुम्हारा ये सर भी है,
लिल्लाह पी न लेना, चरन धो रहे हो तुम.
"मुंकिर" को मिल रही है, ख़ुशी जो हक़ीर सी,
क्यूँ तुम को लग रहा है, कि कुछ खो रहे हो तुम.
*अजमतों=मर्याओं *लिल्लाह=शपत है ईश्वर की
غُسل و وضو سے داغِ عمل دھو رہے ہو تم
مذہب کی سوئیوں سے رفو ہو رہے ہو تم٠
ہر دانہ داغ دار ہوا، دیکھو فصل کا
کھیتیوں میں اپنی خطا بو رہے ہو تم٠
ہتھیار سے ہو لیس، ہنسی بھی نہیں نصیب
طاقت کا بوجھ لادے ہوئے، رو رہے ہو تم٠
ہونا ہے واقعاتِ مسلسل وجود کا
پورے نہیں ہوئے ہو، ابھی ہو رہے ہو تم٠
انسانی عظمتوں کا، تمہارا یہ سر بھی ہے
لللہ پی نہ لینا، چرن دھو رہے ہو تم٠
منکر کو مل رہی ہے، خوشی جو حقیر سی
تم کویہ لگ رہا ہے، کہ کچھ کھو رہے ہو تم٠