Sunday, March 30, 2014

Junbishen 167



मुस्कुराहटें 

डुबोया मुझको होने ने 

जनम है इक जंजाल अजन्मो , जनम से जान बचाना तुम , 
मेरी बात नहीं माने तो, जीवन भर पछताना तुम .
जनम अगर हिन्दू में पाया , छूत छात में जाना तुम .
जनम अगर मुस्लिम में पाया , जड़ अपनी कटवाना तुम .
जनम अगर सिख्खों में पाया, बाल के जाल रखाना तुम. 
जनम अगर बुद्धों में पाया, तो भिक्षु बन जाना तुम .
धरम का चूहेदान जो बदला , ईसोई बन जाना तुम. 
या तो बाबा की कुटिया पर धूनी कहीं रमाना तुम .

नहीं अगर माने तो आकर, घुट घुट कर मर जाना तुम ,
प्रदूषण है जात पात की , आकर आन गंवाना तुम ,
जनम की खातिर नहीं उचित है, भारत का माहौल अभी ,
कुछ सदियों तक रुके रहो, जनम पे हो लाहौल अभी ..

Friday, March 28, 2014

Junbishen 166



हिंदी गज़ल 

मन को भेदे, भय से गूथे, विश्वासों का जाल,
अंधियारे में मुझे सताए, मेरा ही कंकाल।

तन सूखा, मन डूबा है, तू देख ले मेरा हाल,
रोक ले शब्दों कोड़ों को, खिंचने लगी है खाल।

सास ससुर हैं लोभी मेरे, शौहर है कंगाल,
नन्द की शादी रुकी है माँ, मत भेज मुझे ससुराल।

इच्छाएँ बैरी हैं सुख की, जी की हैं जंजाल,
जितनी कम से कम हों पूरी, बस उतनी ही पाल।

जब जब बाढ़ का रेला आया, जब जब पडा अकाल,
जनता दाना दाना तरसी, बनिया हुवा निहाल।

वाह वाह की भूख बढाए, टेट में रक्खा माल,
'मुंकिर' छोड़ डगर शोहरत की, पूँजी बची संभाल।

Wednesday, March 26, 2014

Junbishen 185



हिंदी गज़ल 

रिश्ता नाता कुनबा फ़िर्क़ा, सारा जग ये झूठा है,
जुज्व की नदिया मचल के भागी, कुल का सागर रूठा है।

ज्ञानेश्वर का पत्थर है, और दानेश्वर की लाठी है,
समझ की मटकी बचा के प्यारे, भाग्य नहीं तो फूटा है।

बन की छोरी ने लूटा है, बेच के कंठी साधू को,
बाती जली हुई मन इसका, गले में सूखा ठूठा है।

चिंताओं का चिता है मानव, मंसूबों का बंधन है,
बिरला पंछी फुदके गाए, रस्सी है न खूटा है।

सुनता है वह सारे जग की, करता है अपने मन की,
सीने के भीतर रहता है, मेरा यार अनूठा है।

लिखवाई है हवा के हाथों, माथे पर इक राह नई,
"मुंकिर" सब से बिछड़ गया है, सब से रिश्ता टूटा है।

Monday, March 24, 2014

Junbishen 164



हिंदी गज़ल 

बहुत दुखी है जीता है वह, बस केवल अभिलाषा में,
सांस ऊपर की आशा में ले, नीचे जाए निराशा में.

बड़ी तरक्की की है उसने, लोगों की परिभाषा में,
पाप कमाया मन मन भर, और पुन्य है तोला माशा में.

अय्याशी में कटी जवानी, पाल न पाए बच्चों को,
अंत में गेरुवा बस्तर धारा, पल जाने की आशा में.

महशर के इन हंगामों को, मेरे साथ ही दफ़ना दो,
अमल ने सब कुछ खोया पाया, क्या रक्खा है लाशा में.

ज्ञानी, ध्यानी, आलिम, फ़ाज़िल, श्रोता गण की महफ़िल में,
'मुंकिर' अपनी ग़ज़ल सुनाए, टूटी फूटी भाषा में.

Sunday, March 23, 2014

Junbishen 163



नज़्म 


गुलकारियां

सवाब क्या है, खुशी तुम्हारी,
अज़ाब क्या है, तुम्हारी उलझन,
' वहाँ ' पे कुछ भी नहीं है प्यारे,
यहीं पे सब कुछ, है रोजे-रौशन।

इताबे1क़ुदरत, है ख़ौफ़-हैवाँ 2,
ख़ुदा का क़हर और फ़रेबे-शैतां,
बचे हैं इन्सां, कि बाद इनके,
चलो कि आपस में बाटें सावन।

वो पेड़ दूषित, फ़सल जो उपजें,
चलो कि देखें, जड़ों में इनके,
कहाँ से लेती हैं गर्म सासें,
कहाँ से पाती हैं दुष्ट जीवन।

ख़ुदा को क़िस्तों में माना हम ने,
थी ख़ौफ़ अव्वल और लौस3 दोयम,
फ़रेब, धोखा थी क़िस्त सोयम,
और चौथी, जंगें, विजय, समर्पन ।

अजब हैं ज़ेहनी इबारतें यह,
सवाल उज्जवल जवाब मद्धम,
ख़याल 'उस' की तरफ़ है मायल,
दिमाग़ मांगे सुबूतो-दर्शन।

शबाब क़ातिल, बला का जोबन,
बहक गई है यह महकी जोगन,
इसे ठिकाना बुला रहा है,
कोई बनाए इसे सुहागन।

१-प्राकृतिक आपदा २-पशु-भय ३ -लालच

Friday, March 21, 2014

Junbishen 162



नज़्म 

उन्नति शरणम् गच्छामि

गौतम था बे नयाज़ ए अलम1, जब बड़ा हुवा,
महलों की ऐश गाह में, इक ख़ुद कुशी किया।
पैदा हुवा दोबारा, हक़ीक़त की कोख से,
तब इस जहाँ के क़र्ब2 से, वह आशना हुवा।

देखा ज़ईफ़3 को तो, हुवा ख़ुद नहीफ़4 वह,
रोगियों को देख के, बीमार हो गया।
मुर्दे को देख कर तो, वह मायूस यूँ हुवा,
महलों की ऐश गाह से, संन्यास ले लिया।

बीवी की चाहतों से, रुख अपना मोड़ कर,
मासूम नव निहाल को भी, तनहा छोड़ कर,
महलों के क़ैद खानों से, पाता हुवा नजात,
जंगल में जन्म पाया था, जंगल को चल दिया.

असली ख़ुदा तलाश वह, करता रहा वहां,
कोई  ख़ुदा मिला न उसे, यह हुवा जरूर
वह इन्क़्शाफ़ v सब से बड़े, सच का कर गया,
"दिल में है अगर अम्न, तो समझो  ख़ुदा मिला"।

सौ फ़ीसदी था सच, जो यहाँ तक गुज़र गया,
अफ़सोस का मुक़ाम है, जो इसके बाद है,
शहज़ादे के मुहिम की, शुरुआत यूँ हुई,
तन पोशी, घर, मुआश बतर्ज़े-गदा6 हुई।

दर असल थी मुहिम, हो  ख़ुदाओं का सद्दे-बाब7,
मुहमे-अज़ीम8 थी, कि जो राहें भटक गई,
राहों में इस अज़ीम के, जनता निकल पड़ी,
उसने महेल को छोड़ा था, और इसने झोपडी।

शीराज़ा9 बाल बच्चों के, घर का बिगड़ गया,
आया शरण में इसके जो, वह भिक्षु बन गया।
मानव समाज कि धुरी, जो डगमगा गई।
मेहनत कशों पे और, क़ज़ा10 दूनी हो गई।

काहिल अमल फ़रार, ये हिन्दोस्तां हुवा,
जद्दो-जेहद का देवता, चरणों में जा बसा,
तामीर11 क़ौम के रुके, सदियाँ गुज़र गईं,
'मुंकिर' खुमार बुत का ये, छाया है आज तक,

माज़ी गुज़र गया है, बुरा हाल है बसर।
आबादियों को खाना, न पानी है मयस्सर ,
ज़ेरे सतर ग़रीबी12, जिए जा रहे हैं हम,
बानी महात्मा की,  पिए जा रहे हैं हम.

१-दुःख से अज्ञान 2 -पीडा ३-बृध ४-कमज़ोर ५-उजागर करना ६-भिखारी की तरह जीवन यापन ७-समाप्त होना ८-महान ९-प्रबंधन १०-मौत ११-रचना १२-गरीबी रेखा

Tuesday, March 18, 2014

junbishen 161



इबरत का नज़ारा 
शमशान में जलती हुई, लाशों का नज़ारा,
या कब्र में उतरी हुई, मय्यत का इशारा,
देते हैं ये जीने का सबक़, अह्ल ए हवस को,
समझो तो समझ पाओ, कि कितना हो तुम्हारा    

प्रशंशनीय 
प्रदर्शनी प्रकृति की, नहीं पूजनीय है ,
ये आपदा , विपदा भी, नहीं निंदनीय है ,
भगवान् या शैतान नहीं होती है क़ुदरत ,
जो कुछ मिला है इससे, वह प्रशंशनीय .

कसौटी 
ईमान को पाया है या ईमान लिया है ?
मनवाया गया है कि इसे मान लिया है .
फटका है ? पछोरा है ? इसे जान लिया है ?
लोगों के गढ़े देव को पहचान लिया है ?

Sunday, March 16, 2014

Junbishen 160



मुस्कुराहटें 

फकीर का ज़मीर

कम बख्त इक फ़कीर जो दफ्तर में आ घुसा,
बोला कि बेटा जीता रहे, लिख दे ख़त मेरा।
कागज़, कलम था हाथ में, बढ़ कर थमा दिया,
मैं ने भी कारे-खैर यह फ़ैसला किया।
कहने लगा कि जोरू को लिख दे मेरा सलाम,
लिख दे कि आज कल ज़रा ढीला है अपना काम।
माहे-रवाँ में लिख दे कि गर्दिश मेहरबां,
इस वजह सिर्फ़ साठ सौ रपया है कुल रवां।
अगले महीने काफी बचत की उम्मीद है,
हिंदू की है दीवाली, मुसलमां की ईद है।
मैं ने कहा ये लो, बुरे हल लिख दिया,
कहने लगा कि, "बेटा अब हो जाए कुछ भला"
यह सुन के सर फिरा तो तवाज़ुन1 बिगड़ गया,
मुंह से निकल गया कि तेरी --------------
१-संतुलन

Friday, March 14, 2014

Junbishen 159

रूबाइयाँ 


हर सम्त सुनो बस कि सियासत के बोल, 
फुटते ही नहीं मुंह से सदाक़त के बोल , 
मजलूम ने पकड़ी रहे दहशत गर्दी, 
गर सुन जो सको सुन लो हकीकत के बोल. 


शैतान मुबल्लिग़! अरे सबको बहका, 
जन्नत तू सजा, फिर आके दोज़ख दहका, 
फितरत की इनायत है भले 'मुंकिर' पर, 
इस फूल से कहता है कि नफरत महका. 


पसमांदा अक़वाम पे, क़ुरबान हूँ मै, 
मुस्लिम के लिए खासा परीशान हूँ मैं, 
पच्चीस हैं सौ में, इन्हें बेदार करो, 
सब से बड़ा हमदरदे-मुसलमान हूँ मैं. 

Wednesday, March 12, 2014

Junbishen 158



नज़्म 

 कमसिन रहनुमा

कमसिन था रह नुमा, कि जवाँ साल मर गया ,
अध् कचरे से उसूल, दिमागों में भर गया,
अब तक जिन्हें गले से, लगाए हुए हो तुम ,
बोसीदगी1 से घर को, सजाए हुए हो तुम।
पूरी जो उम्र पाता, समझता वह भूल ख़ुद ,
मतरूक2 करके जाता, वह अपने उसूल ख़ुद।
१-जीर्णता २-अप्रचलित

Monday, March 10, 2014

Junbishen 157

नज़्म 

छीछा लेदर

ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी,
भए न्याय के सब अधिकारी।
इन सब को अपराधी जान्यो,
सभै की मौन समाधि जान्यो।
निर्बल जीव को पापी संजयो,
ताड़क को परतापी समझयो।
इनके मूडे सींग उग आई,
इनके मार से कौन बचाई?
गंवरा भए शहर के बासी,
न्याय धीश हैं चमरा पासी।
पशुअन तक सनरक्षन पाइन,
सवरण जान्यो जनम गंवाइन।
नारी माँ बेटी बन बनयाई,
तुलसी बाबा राम दुहाई।

Thursday, March 6, 2014



Junbishen 156



हिंदी गज़ल  


तुम जाने किस युग के साथी, साथ मेरे क्यूं आए हो,
सर का भेद नहीं समझे, दाढ़ी-चोटी चिपकाए हो।

चमत्कार चतुराई है उसकी, तुम जैसा इंसान है वह,
करके महिमा मंडित उसको, तुम काहे बौराए हो।

माथा टेकू मस्तक वालो, यह भी कोई शैली है,
धोती ऊपर टोपी नीचे, इतना शीश नवाए हो।

मुझ तक अल्लह यार है मेरा, मेरे संग संग रहता है,
तुम तक अल्लह एक पहेली, बूझे और बुझाए हो।

चाहत की नगरी वालो, कुछ थोड़ा सा बदलाव करो,
तुम उसके दिल में बस जाओ, दिल में जिसे बसाए हो।

यह चिंतन, यह शोधन मेरे, मेरे ही उदगार नहीं,
अपने मन में इनके जैसा, तुम भी कहीं छुपाए हो।

चाँद, सितारे, सूरज, पर्बत, ज़ैतूनो-इन्जीरों१ की,
मौला! 'मुंकिर; समझ न पाया, इनकी क़समें खाए हो।

-कुरान में अल्लाह इन चीज़ों की क़समें खा खा कर अपनी बातों का यकीन दिलाता है.

Tuesday, March 4, 2014

junbishen 155



ग़ज़ल 
यादे माज़ी को तो, बेहतर है भुलाए रखिए,
हाल शीशे का है, पत्थर से बचे रखिए।

दोस्ती, यारी, नज़रियात, मज़ाहिब, हालात,
ज़हन ओ दिल पे, न बहनों को बिठाए रखिए।

मैं फ़िदा आप पे कैसे, जो बराबर हैं सभी,
ऐ मसावाती मुजाहिद! मुझे पाए रखिए।

सात पुश्तों से ख़ज़ाना,  ये चला आया है,
सात पुश्तों के लिए माँ, इसे ताए रखिए।

आबला पाई भुला बैठी है, राहें सारी,
आप कुछ रोज़, चरागों को बुझाए रखिए।

सच की किरनों से, जहाँ में, लगे न आग कहीं,
आतिशे दिल अभी "मुंकिर" ये बुझाए रखिए।

Sunday, March 2, 2014

Junbishen 154



ग़ज़ल 
ज़मीं पे माना, है ख़ाना ख़राब1 का पहलू,
मगर है अर्श पे, रौशन शराब का पहलू ।

ज़रा सा गौर से देखो, मेरी बग़ावत को,
छिपा हुआ है, किसी इन्क़ेलाब का पहलू।

नज़र झुकाने की, मोहलत तो देदे आईना,
सवाल दाबे हुए है,जवाब का पहलू।

पड़ी गिज़ा  ही, बहुत थी मेरी बक़ा के लिए,
बहुत अहेम है मगर, मुझ पे आब का पहलू।

ख़ता ज़रा सी है, लेकिन सज़ा है फ़ौलादी,
लिहाज़ में हो खुदाया, शबाब का पहलू।

खुली जो आँख तो देखा, निदा2 में हुज्जत थी,
सदाए गैब में पाया, हुबाब3 का पहलू।

तुम्हारे माजी में, मुखिया था कोई, गारों में,
अभी भी थामे हो उसके निसाब4 का पहलू।

बड़ी ही ज़्यादती की है, तेरी खुदाई ने,
तुझे भी काश हो लाज़िम हिसाब का पहलू।

ज़बान खोल न पाएँगे, आबले दिल के,
बहुत ही गहरा दबा है, इताब5 का पहलू।

सबक़ लिए है वह, बोसीदा दर्स गाहों के ,
जहाने नव को सिखाए, सवाब का पहलू।

तुम्हारे घर में फटे बम, तो तुम को याद आया,
अमान ओ अम्न पर लिक्खे, किताब का पहलू।

उधम मचाए हैं 'मुंकिर' वह दीन ओ मज़हब के ,
जुनूँ को चाहिए अब सद्दे बाब6 का पहलू..

1-  बर्बादी 2-ईश वाणी 3- बुलबुले 4- Cource 5- सज़ा 6- समाप्त