Monday, March 23, 2009

ग़ज़ल -सुममुम बुक्मुम उमयुन कह के फहेम के देते हो ताने


ग़ज़ल

सुममुम बुक्मुम उमयुन कह के, फ़हेम के देते हो ताने,
दिल में मरज़ बढा के मौला, चले हो हम को समझाने।

लम यालिद वलं यूलद, तुम हम जैसे मख्लूक़ नहीं,
धमकाने, फुसलाने की ये चाल कहाँ से हो जाने?

कभी अमन से भरी निदाएँ, कभी जेहादों के गमज़े,
आपस में खुद टकराते हैं, तुम्हरे ये ताने बाने।

कितना मेक अप करते हो तुम, बे सर पैर की बातों को,
मुतरज्जिम, तफ़सीर निगरो! "बड़ बड़ में भर के माने।

आज नमाजें, रोजे, हज, ख़ेरात नहीं, बर हक़ ऐ हक़!
मेहनत, ग़ैरत, इज़्ज़त, का युग आया है रब दीवाने।

बड़े मसाइल हैं रोज़ी के, इल्म बहुत ही सीखने हैं,
कहाँ है फ़ुरसत सुनने की अब, फ़लक़ ओ हशर के अफ़साने।

कैसे इनकी, उनकी समझें, अपनी समझ से बाहर है,
इनके उनके सच में "मुंकिर" अलग अलग से हैं माने।


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नोट-पहले तीन शेरों में शायर सीधा अल्लाह से मुखातिब है , चौथे में उसके एजेंटों से और आखिरी तीन शेरों में आप सब से. अर्थ गूढ़ हैं, काश कि कोई सच्चा इस्लामी विद्वान् आप को समझा सके.

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